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निरंतरता .... (विजय निकोर)

निरंतरता

 

निरंतरता?

निरंतरता क्या है?

यही न

कि पलक के झपकते ही यहाँ

सब बदल जाता है निरंतर

उतर-उतर जाता है दिन

फिसलते हर पल की तरह ...

मेरे उसे जी लेने से पहले

 

बार-बार

बदल-बदल जाने की निरंतरता

 

"कल के वायदे

कल के थे

आज की बात कुछ और"

मात्र इतना ही कह कर

बदल जाते हैं दिल ...

हाथ में आया न आया तब

सब छूट जाता है, टूट जाता है

मन का नियंत्रण

मिट्टी के खिलोने की तरह

 

बार-बार

टूट-टूट जाने की निरंतरता ...

 

परछाईं भी हिलती है, सहमी, दबे पाँव

पेड़ों की फैली नंगी बाहों के बीच

उड़ते सूखे पत्ते भी भागते हैं

दूर, पेड़ों से... अपनों से ... डरते

बचे हुए कुछ पत्तों की सर-सर से

टूट जाता है वक्त का ठहराव

मौसम-पेड़-पत्ते सह लेते हैं बदलाव... सभी

एक मेरे सिवा

रह जाए न अभाव ... एकाकीपन का

कुछ और अकेला हो जाता हूँ

 

बार-बार

एकाकीपन की निरंतरता ...

 

निरंतरता के नाम

किया नहीं है क्या हमने

किसी से प्यार? 

चिपकी हैं हृद्य के शीशे पर

रिश्तों की धूल की परतें ... सीने में

------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on December 13, 2013 at 7:11pm

//मुग्ध हूँ; भाग्यवान हूँ कि आपकी रचना से रूबरू हो रहा हूँ//


माँ शारदा कि कृपा और आप जैसे सुहृद जनों की शुभ कामनाओं के लिए आभार।

स्नेह बनाए रखें, आदरणीय शरदिंदु जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 13, 2013 at 9:17am

//अद्भुत शायद यही शब्द इस रचना की उन्मुक्त प्रसंशा के लिए प्रयुक्त होना चाहिए

निरंतरता के माध्यम से दिल की बात कहना

ग़ज़ब ग़ज़ब ग़ज़ब//

इन सुन्दर शब्दों से मुझको इतना मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय संदीप जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 13, 2013 at 9:13am

//सुंदर रचना , सुंदर भाव सम्प्रेषण//

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 13, 2013 at 9:11am

//सच! फिर भी जीवन निरंतरता लिए हुए है, अथाह गहन भाव रचना में सदा की तरह//

आदरणीय जितेन्द्र जी, ऐसी सराहना के लिए हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 13, 2013 at 9:08am

//महत्वपूर्ण प्रश्न से कविता का अंत किया है जो कि एक शुरुआत का आह्वाहन कर रहा है।//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया वंदना तिवारी जी।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 9, 2013 at 1:31am
श्रद्धेय, आपकी इस रचना को मैंने पोस्ट होने के बाद कुछ घंटे के अंदर ही देखा था लेकिन भावनाओं में ऐसा बह गया था इसे पढ़ने के बाद कि टिप्पणी लिखने का ख़्याल ही नहीं आया. उस भावना की 'निरंतरता' अभी भी बनी हुई है....अत: कोई औपचारिकता नहीं....बस मुग्ध हूँ; भाग्यवान हूँ कि आपकी रचना से रूबरू हो रहा हूँ इस मंच पर आकर. इस सुख की निरंतरता बनी रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है. सादर.
Comment by vijay nikore on December 8, 2013 at 1:48pm

//वाह ... गजब ....आपको पढना ... बस बहते जाना भाव और  शब्दों के ... तरंगों में//

आपसे मिले सराहना के शब्द मन को छू गए। आपका हार्दिक आभार, आदरणीया महिमा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 8, 2013 at 1:46pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया सावित्री जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 8, 2013 at 1:44pm

//पेड़ों का बिम्ब तो अकल्पनीय कल्पना है और मूलतः यही आप हैं ,आपका परिचय है//

जी हाँ, सूखे पत्तों पर चलना युवा-अवस्था से ही अच्छा लगता रहा है।

कविता की सराहना के लिए हृद्य-तल से आभार, आदरणीय विजय मिश्र जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on December 8, 2013 at 1:40pm

 

//आपकी रचनाओं में चिंतन की विविधता सतत कुछ न कुछ सीखने का सुअवसर प्रदान करती है//

आपका हार्दिक धन्यवाद इन मूल्यवान शबदों के लिए, आदरणीय आशुतोष मिश्र जी।

 

सादर,

विजय निकोर

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