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गूँजी फिजाएं ......................डॉ० प्राची

वर्जना के टूटते

प्रतिबन्ध नें- 

उन्मुक्त, भावों को किया जब, 

खिल उठीं

अस्तित्व की कलियाँ 

सुरभि चहुँ ओर फ़ैली, 

मन विहँस गाने लगा मल्हार...

...फिर गूँजी फिजाएं 

जब सरकता चाँद पूनम

छत चढ़ा,

तारों नें झिलमिल 

दीप उत्सव में जलाए, 

प्राण प्रिय नें

हाथ थामा, 

सिहरते पल नें किया शृंगार...

..फिर गूँजी फिजाएं 

बधिर साँकल,

बंद खिड़की

ख्वाब की - घुटती सिसकती, 

ले कहीं से

अंजुरी भर 

हौसले की रश्मियों को,

जब खुली, पा नभ तलक विस्तार...

..फिर गूँजी फिजाएं 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 22, 2013 at 2:29pm

अभिव्यक्ति सन्निहित कल्पना को पसंद करने के लिए सादर धन्यवाद आ० डॉ ० गोपाल श्रीवास्तव जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 22, 2013 at 2:27pm

रचना पर आपके सकारात्मक उत्साहवर्धक अनुमोदन के लिए सादर धन्यवाद आ० अखिलेश श्रीवास्तव जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 22, 2013 at 2:25pm

प्रिय गीतिका जी 

इस नवगीत पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रया के लिए सस्नेह धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 22, 2013 at 2:24pm

आदरणीय शिज्जू शकूर जी 

अभिव्यक्ति की सराहना के लिए हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 22, 2013 at 1:51pm

वाह वाह बहुत ही सुन्दर नवगीत लिखा है आपने अद्भुत भावों को समेटे हर बंद चमत्कारी सा लगता है

इस सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारिये आदरणीया

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 22, 2013 at 1:48pm

अत्यंत मनमोहक,बेहद  सुंदर भाव लिए  हुयी अनुपम रचना, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 22, 2013 at 1:44pm

बधिर साँकल,

बंद खिड़की

ख्वाब की - घुटती सिसकती, 

ले कहीं से

अंजुरी भर 

हौसले की रश्मियों को,

जब खुली, पा नभ तलक विस्तार...

..फिर गूँजी फिजाएं --वाह जैसे मुक्त हुए हों सब हृदय के उद्दगार ,बहुत शानदार पंक्तियाँ ,बार बार पढने को मन करता है ,बहुत- बहुत बधाई आपको प्रस्तुति पर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 22, 2013 at 1:19pm

अहा! अहा! अत्यंत मधुरिम नवगीत वाह पंक्तियों के गहरे भाव से उठती लहरें ह्रदय को स्पर्श कर सुखद अनुभूति का एहसास करवा रही हैं. इस सुन्दर सुमधुर मनोहारी गीत हेतु हृदयतल से बधाई स्वीकारें दीदी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 22, 2013 at 12:45pm

वर्जना के टूटते
प्रतिबन्ध नें-
उन्मुक्त, भावों को किया जब,
खिल उठीं
अस्तित्व की कलियाँ
सुरभि चहुँ ओर फ़ैली,
मन विहँस गाने लगा मल्हार...
...फिर गूँजी फिजाएं
उपरोक्त पंक्तियाँ अपने आप अप्रतिम भावोद्गार हैं. अस्तित्व की कलियों  से जिस अदम्य साहस को समर्थन मिला है वह बहुत ही संतोष देता है. 

बधिर साँकल,

बंद खिड़की

ख्वाब की - घुटती सिसकती,

हम्म .. ये ब्बात ...  :-))))))))))

नवगीत की कड़ियों के सिरों को एक विन्दु और आगे बढ़ाती इस प्रस्तुति पर अतिशय बधाइयाँ, डॉ. प्राची.

यह अवश्य है कि रचनाओं की कायिक चाहना भी कभी-कभी आग्रही हो उठती है उस दशा में रचनाकार को उन्हें संतुष्ट करना आवश्यक हो जाता है. मेरा इशारा  तारों नें झिलमिल / दीप उत्सव में जलाए  पंक्ति को लेकर है. गेयता बाधित हुई कहना मात्र अपेक्षित नहीं है. बल्कि मैं आपसे साझा करना चाहूँगा कि हम अब इस तथ्य पर ध्यान दें कि गेयता क्यों बाधित हुई या क्या हुआ है कि गेयता बाधित प्रतीत हो रही है.


वैसे आपकी वैचारिकता और प्रयुक्त शब्दों के प्रति ठोस व्यवहार अत्यंत उच्च स्तर के होते हैं, अतः अक्षरियों पर किसी विवाद को मैं अधिक तरज़ीह नहीं दूँगा.
इस उन्नत भावदशा के लिए सादर बधाइयाँ.
 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 22, 2013 at 12:21pm

आदरणीया प्राची जी ..सम्पूर्ण गीत मनमोहक है ..चुनिन्दा बेहतरीन शब्द समायोजन इसमें चार चाँद लगाता है ..हमेशा की तरह आपकी यह रचना भी लाजवाब है ..इस सुंदर रचना पर मेरी तरफ से हादिक बधाई स्वीकार करें ..सादर 

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