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यादों के साथ साथ तेरी चल रहा हूँ मैं

फ़ुर्कत की आग दिल में लिए जल रहा हूँ मैं।

यादों के साथ साथ तेरी चल रहा हूँ मैं॥

 

आ जा अभी भी वक़्त है तू मिल ले एक बार,

इक बर्फ़ की डली की तरह गल रहा हूँ मैं॥

 

संजीदा कब हुआ है मुहब्बत में तू मेरी,

हरदम तेरी नज़र में तो पागल रहा हूँ मैं॥

 

तू तो भुला के मुझको बहुत दूर हो गया,

तन्हाइयों के बीच मगर पल रहा हूँ मैं॥

 

रोने से तेरे मिटता है हर पल मेरा वजूद,

क्यूंकी तुम्हारी आँख का काजल रहा हूँ मैं॥

 

यादों के साँप लिपटे हैं तेरी यहाँ वहाँ,

एहसास हो रहा है के संदल रहा हूँ मैं॥

 

 “सूरज” जो उग रहा है सलामी मिले उसे,

पूछेगा मुझको कौन अभी ढल रहा हूँ मैं॥

 

डॉ सूर्या बाली “सूरज”

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2013 at 3:14pm

डा ० साहेब

बहुत सुन्दर रचना  है i

संसृति में  नहीं दिवाकर का संभवतः निधनं हुआ होगा i

वह भी अनजान तराई में  जाकर के  अस्त हुआ  होगा i i   सादर i

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 19, 2013 at 12:44pm

वाह वाह वाह आदरणीय सर जी वाह

इक इक अशआर शानदार है

इस लाजवाब ग़ज़ल के हर अशआर पर ढेरों दाद क़ुबूल कीजिये

जय हो

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"आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.…"
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"   आदरणीय मिथिलेश जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार.…"
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"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर "
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