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कैसा ये जीवन हुआ, दिन प्रति बढ़े विकार

लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार  

नित लेते आकार, स्वार्थ के सर्प अनूठे

बाँट रहे संदेह, नेह के बंधन झूठे

मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा

संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा

                - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 21, 2013 at 11:12pm

संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा

बहुत ही स्टीक बात कही आपने बहुत ही भावपूर्ण कुंडलियाँ है | बधाई आपको 

Comment by बृजेश नीरज on October 21, 2013 at 10:45pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 21, 2013 at 8:20pm

आदरणीय बृजेश भाई , कुंडलिया के माध्यम से बहुत सुन्दर बात कही है !!!!! आपको बहुत बधाई !!!!

Comment by बृजेश नीरज on October 21, 2013 at 7:09am

आदरणीय अभिनव जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 21, 2013 at 7:08am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Abhinav Arun on October 21, 2013 at 6:41am

मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा

संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा

.............बहुत सशक्त रचना हार्दिक बधाई आ. नीरज जी !

Comment by annapurna bajpai on October 20, 2013 at 11:00pm

बहुत ही सुंदर और सार्थक कुण्डलिया की रचना हेतु बहुत बधाई आपको आ0 बृजेश जी । 

Comment by बृजेश नीरज on October 20, 2013 at 1:45pm

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 20, 2013 at 1:45pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 20, 2013 at 1:45pm

आदरणीय शिज्जू जी आपका हार्दिक आभार!

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