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राम! कहाँ हो!

कैकई के मोह को

पुष्ट करता

मंथरा की

कुटिल चाटुकारिता का पोषण

 

आसक्ति में कमजोर होते दशरथ

फिर विवश हैं

मर्यादा के निर्वासन को

 

बल के दंभ में आतुर

ताड़का नष्ट करती है

जीवन-तप  

सुरसा निगलना चाहती है

श्रम-साधना

एक बार फिर

 

धन-शक्ति के मद में चूर

रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं 

 

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

 

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा आज है फिर

 

राम ! तुम कहाँ हो ?

‌‌‌‌‌‌‌‌‍=====================

--बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on October 17, 2013 at 6:09pm

आदरणीय सौरभ जी रचना पर आपको उपस्थिति के लिए आपका हार्दिक आभार!

आपके शब्द मुझे उत्साहित करते हैं रचनाकर्म के लिए और आपका मार्गदर्शन उस कर्म को दिशा देता है! इसके लिए आभार व्यक्त करने को मेरे पास शब्द नहीं हैं!

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on October 17, 2013 at 6:03pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! रचना आपको पसंद आई, यही मेरे प्रयास की सफलता है!

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 4:11pm

जाने वो कैसा समय रहा होगा जिसकी विसंगतियों से उद्धार पाने के लिए अवतारों और पराक्रमियों की परिकल्पनाएँ की गयी थीं.

क्या पता, कौन जाने, वे परिकल्पनाएँ सत्य आधारित भी थीं या मात्र गल्प ही थीं, जिनके शब्द और कथ्य हम आजतक चुभलाते जा रहे हैं ! कौन जाने क्षुब्ध जन-समाज के मन को उसकी अतिरेक परिस्थितियों और अतुकान्त विवशता से डाइवर्सन पर डालने के लिए, रचा गया गल्प !

लेकिन ये गल्प ही सही, वायव्य संसार बना कितनी राहत देता है एक उजबुजाये मन को ! जो यह मनोविज्ञान समझ सके वही कवि है. इसके प्रति समाज को कोई संशय नहीं रहा है कभी. 

या, यदि सत्य आधारित पात्र ही थे वो तो फिर ऐसे पात्रों के अवतरण की अवधारणाएँ किन परिस्थितियों में संभव हैं ?

भाई बृजेशजी, आपकी प्रस्तुत रचना समानान्तर दुर्दम्य परिस्थितियों, असहज सम्बन्धों और घोर विसंगतियों के व्याप जाने की साक्षी सदृश खड़ी है. वाह !

आपकी रचना लगातार सक्षम होते आपके शाब्दिक आग्रह और तदनुरूप रचनाकर्म को आवश्यक गहनता देती है. आप बस सतत क्रियाशील बने रहें. निर्बीज प्रतिक्रिया या भोथरे प्रतिकार के तौर पर नहीं. बल्कि रचनाधर्मिता की प्रसव-पीड़ा को मान देने के लिए.

इस सार्थक और सफल कविता के लिए हृदय से बधाई.

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 17, 2013 at 12:44pm

आदरणीय बृजेश जी 

अतीक पौराणिक बिम्बों का प्रयोग करते हुए सामयिक हालातों को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्ति मिली है...

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा आज है फिर........................मर्मस्पर्शी पंक्ति 

राम ! तुम कहाँ हो ?

हार्दिक शुभकामनाएं 

Comment by बृजेश नीरज on October 16, 2013 at 9:36pm

आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार! आपका अनुमोदन पाकर मेरा प्रयास सार्थक हुआ!

Comment by वेदिका on October 16, 2013 at 9:20pm

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

 

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा आज है फिर

 

राम ! तुम कहाँ हो ?

अंतर से पुकार मुखरित हुयी है | बधाई !!

Comment by बृजेश नीरज on October 16, 2013 at 1:27pm

आदरणीय बैद्यनाथ जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Saarthi Baidyanath on October 16, 2013 at 1:26pm

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं....... सारगर्भित पंक्तियाँ ...अत्यंत भाव पूर्ण ..! बढ़िया एवं उत्तम रचना ! बधाई बृजेश साहब :)

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 6:37am

आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 4:04am

आज के वास्तविक हालात को बयाँ करती इस सुंदर प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई हो आदरणीय बृजेश जी..... सचमुच आज एक राम की आवश्यकता आन पड़ी है जो रावण के इन बढ़ते हुए सिरों को जड़ से उखाड़ने में सक्षम हो.......

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