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हिन्दी हिन्द की बेटी, ढूंढ रही सम्मान ।
घर गली हर नगर नगर, सारा हिन्दूस्तान ।।
सारा हिन्दूस्तान, दासत्व छोड़े कैसे ।
उड़ रहे आसमान, धरती पग धरे कैसे ।।
‘रमेश‘ कह समझाय, अपनत्व माथे बिन्दी ।
स्वाभीमान जगाय, ममतामयी है हिन्दी ।।
.....................................
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 21, 2013 at 4:26pm

आदरणीय रमेश जी ..इस बिधा की मुझे कोई जानकारी नहीं है ..हिंदी  भाषा के सम्मान से जुडी इस बात का मैं तहे दिल सम्मान करता हूँ ..सादर बधाई के साथ 

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 20, 2013 at 9:19pm

डा आशुतोषजी सादर अभिवादन मै नवरचनाकार हू । आप मेरे ओर ध्यान दिये इसके लिये धन्यवाद । मेरी मंशा दिग्भ्रमित करना नही है जो मै पढा समझा लिख दिया हो सकता है मै गलत ही हू फिर भी अच्छा होता आप स्पष्ट मार्गदर्शन करते । सादर

Comment by Dr Ashutosh Vajpeyee on September 20, 2013 at 6:14pm

कुण्डली और कुण्डलिया में अन्तर होता है, दोनों छंदों का शिल्प विधान भिन्न है.......कृपया नवागन्तुक रचनाकारों को दिग्भ्रमित कदापि न करें...और जो छन्द रचें उसी का नाम लिखें 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 20, 2013 at 3:56pm

आदरणीय रमेश भाई जी प्रयास बहुत ही सुन्दर है भाई जी आदरणीय रविकर सर के द्वारा किये गए संसोधन पर ध्यान दें काफी कुछ स्पष्ट हो जायेगा प्रयासरत रहें शीघ्र ही निपुण हो जायेंगे. इस प्रयास पर बधाई स्वीकारें.

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 20, 2013 at 3:42pm

आदरणीय रविकरजी मैं आपके तात्क्षण्किता एवं सूक्ष्मता से अति प्रभावित हू, आपके प्रत्येक संशोधन मेरे लिये मार्गदर्शन है जिसे मै अपने मानस मे सहेज कर रख रहा हू । इसी प्रकार सहयोग की आपेक्षा से सादर -

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 20, 2013 at 3:34pm

आ गिरिराज भंडारीजी,आदरणीया मलिकजी आपके उत्साहवर्धन के लिये साधुवाद

Comment by Parveen Malik on September 20, 2013 at 2:58pm
हिन्दी की व्यथा ... अपने ही देश में पराई ... बहुत बढिया आदरणीय ... बधाई !
Comment by रविकर on September 20, 2013 at 2:24pm

बहुत बढ़िया भाव हैं आदरणीय-
प्रवाह बाधित हो रहा था-
कुछ छेड़ छाड़ कर दी है-
सादर-

हिन्दी बेटी हिन्द की, ढूंढ रही सम्मान ।
ग्राम नगर हर गली में, धिक् धिक् हिन्दुस्तान ।
धिक् धिक् हिन्दुस्तान, दासता छोड़े कैसे ।
सामंती व्यवधान, बेड़ियाँ तोड़े कैसे।।
कह ‘रमेश‘ समझाय, बना माथे बिन्दी ।
बन जा धरतीपुत्र, बड़ी ममतामय हिन्दी ।।
.....................................


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 20, 2013 at 1:38pm

आदरणीय रमेश भाई , हिन्दी भाषा की शान मे रची सुन्दर कुंडलिया के लिये आपको बधाई !!

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