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अनुभव

 

 

आज फिर दिन क्यूँ चढ़ा डरा-डरा-सा

ओढ़  कर काला  लिबास  उदासी  का ?

 

घटना ? कैसी घटना ?

कुछ भी तो नहीं घटा

पर लगता  है  ...   अभी-अभी अचानक

आकाश अपनी प्रस्तर सीमायों को तोड़

शीशे-सा  चिटक  गया,

बादल गरजे, बहुत गरजे,

बरस न पाये,

दर्द  उनका .. उनका  रहा ।

सूखी प्यासी धरती, यहाँ-वहाँ फटी,

ज़ख़मों की दरारें .....   दूर-दूर तक

 

घटना ?  .... कैसी घटना ?

 

मेरी ज़िन्दगी के सारे पाप ...  

पापों की प्रतिमाओं की  छायाएँ 

मुझको चारों ओर घूरते फैलते अँधेरे,

सिकुड़-सिकुड़ कर अब

अंतरतम तहों में बसे

तरस रहे

रोशनी की पतली लकीर के लिए

 

अंतरस्थ में है चिलचिला रहा

अकस्मात गंभीर और चंचल

पीड़ा का ज्वलंत कोष

ज़ोर-ज़ोर से  चीखना चाह रहा,

गरज  रहा कब से बादल  की  तरह,

बरस नहीं पा रहा

 

घुटन यह कोई नई नहीं,

बस कोई नई घटना बनी

भेस बदल कर दिन-प्रतिदिन

चली आती है मेरे अत्यंत समीप ...

मेले में अबोध खोए बालक की तरह

अनपहचाने  नए खतरों से भयभीत

पुकारता हूँ, पुकारता हूँ ...

" माँ, माँ, ... माँ कहाँ  हो  तुम ? "

 

मेरे रक्तप्लावित स्वर

बेचैन, सहमे-सहमे, मौन,

घटा  तो   कुछ  भी  नहीं,

बस चिटक गया मेरा आकाश

काँच  के  सपने-सा

                           

खोज  रहा  था   मित्र  का  हाथ,

और समेटते-समेटते

अनुभव अनन्त आत्मीय

एक  चोट  और  सह  न  सका

 

 ----------

-  विजय निकोर

२९ मार्च,२०१२

(मौलिक व अप्रकाशित)                                                                    

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on September 23, 2013 at 10:04am

मैं पुनः आता हूँ आपकी इस भावदशा पर आदरणीय..

Comment by vijay nikore on September 23, 2013 at 6:43am

आदरणीया अन्न्पूर्णा जी:

 

कविता के भावों के अनुमोदन के लिए धन्यवाद एवं आभार।

आशा है ऐसे ही मनोबल देती रहेंगी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on September 23, 2013 at 6:40am

 

आदरणीय अरून शर्मा जी:

 

इतनी उदार सराहना और मार्ग-दर्शन के लिए आपका हार्दिक आभार।

आशा है ऐसे ही स्नेह बनाए रखेंगे।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on September 19, 2013 at 11:05pm

वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

एक निवेदन की इस पंक्ति-

//मेले में अबोध खोए बालक की तरह// को यदि यूँ लिखा जाये-

//मेले में खोए अबोध बालक की तरह//

सादर!

Comment by Vindu Babu on September 19, 2013 at 10:23pm
सुन्दर भाव पिरोये हैं आपने आदरणीय रचना में!
कभी कभी अकारण,कभी अतीत में उलझ हृदय कुछ बोझिल सा हो जाता है, भावों का अव्यक्त रहजाना तो और भी भारी पड़ता है,ऐसे में यदि कुछ सहाय होता है तो एक मित्र की संवेदना...एक सच्चे मित्र का साथ। यथार्थ प्रस्तुति!
आपको बहुत बधाई महोदय इस गम्भीर रचना के लिए।
सादर
Comment by ram shiromani pathak on September 18, 2013 at 7:18pm

मेरे रक्तप्लावित स्वर

बेचैन, सहमे-सहमे, मौन,

घटा  तो   कुछ  भी  नहीं,

बस चिटक गया मेरा आकाश

काँच  के  सपने-सा// अनुपम भावाभिव्यक्ति 

बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय विजय निकोर जी //सादर 

Comment by vijayashree on September 18, 2013 at 5:02pm

मेरे रक्तप्लावित स्वर

बेचैन, सहमे-सहमे, मौन,

घटा  तो   कुछ  भी  नहीं,

बस चिटक गया मेरा आकाश

काँच  के  सपने-सा

भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें निकोरे सर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2013 at 3:40pm
आदरणीय विजय भाई , सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बहुत बधाई !!!!!!
Comment by Meena Pathak on September 18, 2013 at 12:07am

घुटन यह कोई नई नहीं,

बस कोई नई घटना बनी

भेस बदल कर दिन-प्रतिदिन

चली आती है मेरे अत्यंत समीप ...

मेले में अबोध खोए बालक की तरह

अनपहचाने  नए खतरों से भयभीत

पुकारता हूँ, पुकारता हूँ ...

" माँ, माँ, ... माँ कहाँ  हो  तुम ? "................बहुत सुन्दर रचना आदरणीय .. बधाई स्वीकारें

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 17, 2013 at 11:56pm

 मेरे रक्तप्लावित स्वर

बेचैन, सहमे-सहमे, मौन,

घटा  तो   कुछ  भी  नहीं,

बस चिटक गया मेरा आकाश

काँच  के  सपने-सा..............बेहद सुंदर भाव

सुंदर रचना बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

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