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सूखा दरख्त

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

जब तक था लड़ता रहा

कभी गर्म लू के थपेड़ों को

बरसात, खून जमाने वाली

ठंड को सहता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

उसकी शाखों को काट- काट कर

लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये

खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये

जुल्म की आग में वो जलता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

उम्र कोई उसकी कम न कर सका

जब तक जीना था वो जिया

जब तक हरा भरा जवान था

हवा व छांव दुनिया को दिया

युग- युग की कहानी कहता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था

 

-मौलिक और अप्रकाशित

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 5, 2013 at 9:54pm

भाई चन्द्रशेखर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on September 26, 2013 at 8:55am

मनुष्य की स्वार्थपरता, कम होते प्रकृति प्रेम व पर्यावरणीय नैतिकता के अभाव को बिम्बित करती सुन्दर रचना। 

उसकी शाखों को काट- काट कर

लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये

खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये

जुल्म की आग में वो जलता रहा

सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था // वाह्ह्ह बधाई आदरणीय।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 11, 2013 at 4:47pm

आदरणीया डॉ प्राची रचना के अनुमोदन के लिये आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 11, 2013 at 4:45pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका आभार,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 11, 2013 at 4:27pm

सूखे दरख़्त की स्मृतियों को प्रस्तुत करती सुन्दर अभिव्यक्ति 

हार्दिक बधाई 

Comment by annapurna bajpai on September 10, 2013 at 9:51pm
आदरणीय शिजू जी आपकी रचना संदेश परक है बधाई आपको । कुछ दिन पहले मैंने एक रचना प्रस्तुत की थी - "वह बरगद " आपकी यह रचना कुछ कुछ वैसी ही लगती है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2013 at 3:09pm

आदरणीया विजयश्री जी आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2013 at 3:08pm

भाई जितेन्द्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2013 at 3:07pm

आदरणीया वंदना जी आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2013 at 3:06pm

आदरणीय गिरिराज सर आपका शुक्रिया,

ये अतुकांत नही है, ये तब की कविता है जब मै दिल के भावों को कागज़ पे अल्फाज़ की शक्ल में उकेरा करता था अब तो थोड़ी बहुत शिल्प की जानकारी भी है,
सादर

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