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ग़ज़ल : सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

-----------

धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं

सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

 

कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर

जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं

 

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

 

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला

खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं

 

हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी

तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं

 

आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर

जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं

------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया mrs manjari pandey जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:59pm

बहुत बहुत धन्यवाद Kewal Prasad जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:59pm

बहुत बहुत धन्यवाद Abhinav Arun जी। ग़ज़ल में इस तरह कहने का रिवाज़ है सिर्फ़ इसलिए कहा है। स्नेह बनाये रखें।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:57pm

बहुत बहुत शुक्रिया  vandana जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:56pm

बहुत बहुत शुक्रिया shubhra sharma जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 5, 2013 at 6:56pm

बहुत बहुत धन्यवाद गिरिराज भंडारी जी

Comment by mrs manjari pandey on September 3, 2013 at 9:26pm

            

      आदरणीय धर्मेन्द्र जी क्या कहने ...

     

धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं

सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं   

    

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

 

      

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 3, 2013 at 8:10am

आ0 धमेन्द्र भाई जी, सादर प्रणाम! वाह! क्या कहने.---
//नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला
खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं

हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी
तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं//----.बहुत सुन्दर गजल। हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर,

Comment by Abhinav Arun on September 3, 2013 at 7:58am

आपकी सभी ग़ज़लों की तरह ये भी सामयिक सशक्त ! आ. श्री धर्मेन्द्र जी - मैं भी बस यही कहूँ... आपकी तारीफ में --


आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर
जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं

                               ..आफ़रींन !

Comment by vandana on September 3, 2013 at 6:56am

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय धर्मेन्द्र जी 

कृपया ध्यान दे...

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