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सितार के

सुरमई तारों की झंकार से

गूँज उठी

स्वप्न नगरी..

समय के धुँधलके आवरण से

शनैः शनैः

प्रस्फुटित हो उठी

एक आकृति

अजनबी

अनजान..

स्वप्नीली पलकें

संतृप्त मुस्कान

प्राण-प्राण अर्थ

निःशब्द..

निःस्पर्श स्पंदन

कण-कण नर्तन

क्षण विलक्षण

मन प्राण समर्पण

सखा-साथी-प्रिय-प्रियतम-प्रियवर

अनकहे वायदे, गठबंध परस्पर - हमसफ़र !

 

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Comment

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Comment by Vindu Babu on August 29, 2013 at 6:41pm
आपकी रचनाओं में शब्दों और भावों का संयोजन अप्रतिम रहता है आदरणीया,हम जैसों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
मैंने कई बार पढ़ी आपकी रचना।
आप मेरा पूछना अन्यथा न लें तो फिर कुछ पूछूं आदरेया...?अपनी समझ विकसित करने लिए।
सादर
Comment by राजेश 'मृदु' on August 29, 2013 at 5:20pm

अमूर्त की यह कल्‍पना हमेशा इसी तरह प्राणावान होती है, आपकी रचना उस व्‍यक्ति को आवाज देती है जो हम सबके अंदर है और जब तन शिथिल हो जाता है, मन की अतृप्ति हाहाकार करने लगती है तब ऐसा ही कोई हमें अनायास अनुप्राणित कर जाता है, एक अनूठा संबल दे जाता है । यह वही शक्ति है जो शक्तिहीन शरीर को भी शक्तिवान बना देती है, मैं इसका यही अर्थ निकाल सकता हूं, शेष कवि ही जाने कवि की कल्‍पना, सादर

Comment by Vasundhara pandey on August 29, 2013 at 9:56am

रोम -रोम  झंकृत हो उठे....

अद्भुत .......


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 29, 2013 at 9:18am

वाह प्रिय प्राची शब्दों की जादूगरी से भोर की बेला उसमे किसी अपने के स्पर्श का एहसास सखा ,साथी हमसफ़र(यदि  शीर्षक को लेकर चलें तो ) या यूँ कहें उस अद्वीत्य परम पूज्य परमेश्वर की अनुकम्पा का एहसास ,या जगत को प्रकाशमान करने वाले आदिदेव सूर्य की उष्णता का एहसास ,किसी भी द्रष्टिकोण से पढ़ें ये रचना उसी में ढल कर आँखों के समक्ष चित्रित होती है बर बस मुख से वाह निकल जाता है ,बहुत- बहुत बधाई आपको 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 28, 2013 at 7:19pm

गठबंध परस्पर - हमसफ़र ! - बहुत सुन्दर बात कही है आपने रचना में विशेषकर भारतीय संस्कृति तो इसी आधार पर टिकी है |

अनकहे वादे - जब मन प्राण समर्पित करने के भाव लिए निभाये जाते है तो कहते है यह सात जन्मो का गठबंधन है | जिस्म दो,

जान एक है |अनजान आकृतियों का संविलियन हो एक नया अंकुर अंकुरित होता है |

जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सुन्दर शब्द चित्र रचना के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची जी   


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 28, 2013 at 5:54pm

आदरणीया प्राची जी ,अदभुत रचना , अदभुत शब्द संयोजन !! हार्दिक बधाई !!

Comment by vijayashree on August 28, 2013 at 1:07pm

अदभुत शब्दों का समावेश ,अति सुदर 

हार्दिक बधाई आ. डॉ. प्राची 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 28, 2013 at 11:45am

सखा-साथी-प्रिय-प्रियतम-प्रियवर

अनकहे वायदे, गठबंध परस्पर - हमसफ़र !

अति सुंदर रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 28, 2013 at 8:49am

आ0 प्राची मैम जी, सादर प्रणाम! वाह! वाह! //प्रफुटित हो उठी
एक आकृति
अजनबी
अनजान..// ऐसा ही प्रतीत होता है जब कण-कण नर्तन करता है और मन प्राण समर्पण होता है; तब होता है समां निराला..अनकहे वादे, निःशब्द, प्राण प्रण निछावर......सत्यमेव जयते!  इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए आपको हृदयतल से बधाई। सादर,

Comment by vandana on August 28, 2013 at 7:14am

बहुत बहुत सुन्दर आदरणीय प्राची जी  एक अलग ही खनक महसूस हो रही है 

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