दुमहले के ऊँचे वातायन से
हलके पदचापों सहित
चुपके से होती प्रविष्ट
मखमली अंगों में समेट
कर देती निहाल
स्वयं में समाकर एकाकार कर लेती
घुल जाता मेरा अस्तित्व
पानी में रंग की तरह
अम्बर के अलगनी पर
टांग दिए हैं वक्त ने काले मेघ
चन्द्रमा आवृत है , ज्योत्सना बाधित
अस्निग्ध हाड़ जल रहा
सीली लकड़ियों की तरह
स्मृति मञ्जूषा में तह कर रखी हुई हैं
सुखद स्मृतियाँ.....
.. नीरज कुमार ‘नीर’
पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित ..
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय वीनस केसरी जी ..
वाह ...
अद्धुत रचना ....
waah Neeraj ji waah .... bahut khoob ..... badhai
waah Neeraj ji waah .... bahut khoob ..... badhai
आदरणीय श्याम जुनेजा जी बहुत आभार . कविता के प्रति गंभीरता के लिए विशेष शुक्रगुजार हूँ . हाड का सबंध शरीर से है .. अस्निग्ध - प्रेमहीन , प्रेम से वंचित . सीली यानि पानी में गीली लकड़ियाँ जो धीरे धीरे सुलगती है और जलती है . उम्मीद करता हूँ बातें अब कुछ ज्यादा स्पष्ट हुई होंगी . आपका धन्यवाद .
आदरणीय मीना पाठक जी , अरुण जी एवं विशाल चर्चित जी बहुत बहुत आभार ..
आदरणीय सौरव जी ह्रदय से आभार ..
झिहर-झिहर बरसती झींसियों के आप्लावित साम्राज्य से मानों यह बिम्ब सीधा उतार लिया गया है --
अम्बर के अलगनी पर
टांग दिए हैं वक्त ने काले मेघ
चन्द्रमा आवृत है , ज्योत्सना बाधित
वाह आदरणीय वाह !
शुभ-शुभ
वाह नीरज भाई बहुत सुन्दर प्रस्तुति गहरे भाव बहुत बहुत बधाई स्वीकारें
बहुत सुन्दर रचना .... बधाई स्वीकारें
सादर
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