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ग़ज़ल - मैं था टूटा बिखरता रहा रात भर

ग़ज़ल –

 

गिरते गिरते संभलता रहा रात भर ,

मैं था टूटा बिखरता रहा रात भर |

 

उसके रुखसार का चाँद दामन में था ,

चांदनी में निखरता रहा रात भर |

 

मुझको मंजिल नहीं बस सफ़र चाहिए ,

दो कदम चल ठहरता रहा रात भर |

 

गो कि पलकें उठीं आईना हो गयीं ,

आईनों में संवरता रहा रात भर |

 

था हकीकत या सपना यही सोचकर ,

अपनी ऊँगली कुतरता रहा रात भर |

 

अर्श तक मैं चढ़ा उंगलियाँ थामकर ,

सांस रोके उतरता रहा रात भर |

 

भोर होने ने मुझमें यकीं भर दिया ,

हादसों से गुज़रता रहा रात भर |

 

शेर   तारे    ग़ज़ल चांदनी रात थी ,

मन का शायर मचलता रहा रात भर |

 

                 - अभिनव अरुण 

          (पुरानी डायरी से - १८०८२०१३ )

      * सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित - अरुण  

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Comment

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Comment by shubhra sharma on August 19, 2013 at 11:09pm

आदरणीय अभिनव अरुण जी ,बहुत खूब 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 19, 2013 at 7:42pm

वाह वाह ! आदरणीय अभिनव अरुण जी 

बहुत ही मासूम सी नजाकत भरी गज़ल पेश की है.

हर शेर मुग्ध कर रहा है 

बहुत बहुत बधाई स्वीकारे. 

Comment by Abhinav Arun on August 19, 2013 at 6:30pm

आदरणीय श्री गिरिराज जी और राजेश जी का बहुत बहुत आभारी हूँ रचना को वक़्त दिया और मेरा उत्साह बढाया आपने .

Comment by Abhinav Arun on August 19, 2013 at 6:29pm

बहुत शुक्रिया श्री शिज्जू जी , अभी विद्यार्थी हूँ , आपकी सलाह सर आँखों पर ठीक कर लेता हूँ अपनी डायरी में , मार्गदर्शन करते रहिये ..सदैव स्वागत और आभार बहुत बहुत !1

Comment by राजेश 'मृदु' on August 19, 2013 at 6:02pm

गो कि पलकें उठीं आईना हो गयीं ,

आईनों में संवरता रहा रात भर |

 बहुत बधाई इस सुंदर रचना पर, सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 19, 2013 at 12:42pm

अभिनव भाई , बहुत बढ़िया गज़ल हुई है , बधाई !!! दो शे र बहुत पसन्द आये -

था हकीकत या सपना यही सोचकर ,

अपनी ऊँगली कुतरता रहा रात भर |

 

अर्श तक मैं चढ़ा उंगलियाँ थामकर ,

सांस रोके उतरता रहा रात भर | -------------- बधाई !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 19, 2013 at 11:19am

///गिरते गिरते संभलता रहा रात भर ,

मैं था टूटा बिखरता रह रात भर ///  वाह ग़ज़ब का मतला हुआ है बेहतरीन

///मुझको मंजिल नहीं बस सफ़र चाहिए ,    बस+सफ़र इसमें ऐबे-तनाफुर है शायद मगर शेर ज़बरदस्त है

दो कदम चल ठहरता रहा रात भर |//  वाह सही है, चलती का नाम ज़िंदगी है मौत ही मंज़िल है ज़िंदा दिल शेर वाह

///था हकीकत या सपना यही सोचकर ,

अपनी ऊँगली कुतरता रहा रात भर |

अर्श तक मैं चढ़ा उंगलियाँ थामकर ,

सांस रोके उतरता रहा रात भर |

 

भोर होने ने मुझमें यकीं भर दिया ,

हादसों से गुज़रता रहा रात भर /// 

ग़ज़ल बड़ी रवाँ हुई है अभिनव जी दाद क़ुबूल करें.

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