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!!! हाथ नर मलता गया है !!!

बह्र-----2122  2122

भोर जो महका गया है।
सांझ को उकसा गया है।।

रास्ते का ढीठ पत्थर,
पैर से टकरा गया है।

चोट लगती दर्द होता,
आह पहचाना गया है।

ऐ खुदा अब तो बता दे!
राह क्यों रोका गया है?

जान कर अति दर्द उसका,
आंख जल ढरका गया है।

हाय ये तकदीर खेला,
खेल कर घबरा गया है।

कल यहां यमराज देखो,
काल को धमका गया है।

रात रोती शब हंसे यूं,
मौत बस सहमा गया है।

ऐ मेरे बन्दे समझ ले,
काम मुश्किल आ गया है।

तुम अहम् अब मत गिनाओ,
हाथ नर मलता गया है।

आज फिर ‘सत्यम’ जुबां से,
बात को समझा गया है।

के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 6, 2013 at 7:12pm

आ0 गीतिका जी, आपके स्नेह और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।  सादर,

Comment by Shyam Narain Verma on August 6, 2013 at 5:17pm
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!
Comment by Meena Pathak on August 6, 2013 at 1:49pm

बहुत सुन्दर .. बधाई आप को 

Comment by विजय मिश्र on August 6, 2013 at 12:07pm
हार्दिक बधाई केवलजी , बहुत ही सुंदर रचना , कई भावों का संच है यह .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 6, 2013 at 9:42am

जान कर अति दर्द उसका,
आंख जल ढरका गया है।

आदरणीय केवल जी, बहुत सुंदर रचना हार्दिक बधाई

Comment by वेदिका on August 6, 2013 at 8:41am

रास्ते का ढीठ पत्थर,
पैर से टकरा गया है।

वाह! बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय के पी सत्यम जी!!

बधाई लीजिये !!

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