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चांदनी फिर पिघलने लगी है

चांदनी फिर पिघलने लगी है
आँसुओं से धुली वो इबारत

गीत बनकर मचलने लगी है।

रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,

भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,

भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,

जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली

मेरी छत पे टहलने लगी है।

इक गजल पर तरह दी किसी ने,

भूला मुखड़ा पुनः गुनगुनाया
प्यार से साज की धूल झाड़ी,

मुद्दतों बाद फिर से उठाया
तार छेड़ें अभी या न छेड़ें,

सुर सजायें या कुछ और ठहरें
मन की पंचायतों में इसीपे

कशमकश रोज़ चलने लगी है।

जिस्म ठंडा पड़ा था सुमन का,

कुछ हरारत सी आने लगी है
कब की मुरझा चुकी खुश्बुओं में,

जिन्दगी कुलबुलाने लगी है
गोद में तितलियों को उठाये,

झांक खिड़की से देखा हवा ने
खोल कर बेबसी के किवाड़े

फिर खुले में निकलने लगी है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 3, 2014 at 11:40am

सुन्दर शब्द संयोजन और उत्तम भाव सम्प्रेषण, इस रचना पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आ० सुलभ अग्निहोत्री जी.

Comment by Sulabh Agnihotri on August 11, 2013 at 5:51pm

आदरणीय सौरभ जी ! आपका मेरे ब्लाॅग पर आना आनन्ददायी है, सुधीजनों की समीक्षा रचनाकर्म की कसौटी होती है। संवेदनशील-समर्थ रचनाधर्मियों की अनुशंसा से आल्हाद और ऊर्जा मिलती है, जो इस समय मुझे मिल रही है।  

एक निवेदन है - बाद का जी तो चलिये साहित्यिक मर्यादा के अनुपालन के लिये हुआ पर यह पहले का आदरणीय मेरे मन को संकुचित कर रहा है। 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 3:20pm

आदरणीय सुलभ जी, आपकी इस रचना को कई अपरिहार्य कारणों से आज देख पा रहा हूँ. 

आपका होना आश्वस्त करता है. प्रस्तुति के कई बिम्ब सटीक तो हैं ही, सार्थक भी हैं.  दिल से बधाई इस संवेदना-संप्रेषण पर. 

सादर

Comment by Sulabh Agnihotri on August 9, 2013 at 5:07pm

धन्यवाद ! विजय निकोर जी !

Comment by vijay nikore on August 7, 2013 at 10:28am

आदरणीय सुलभ जी:

 

//फिर अचानक हुई कोई हलचल,

जैसे लहरा गया कोई आंचल उनके दिल से उठी एक बदली

मेरी छत पे टहलने लगी है।//

बहुत खूब! बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Sulabh Agnihotri on August 7, 2013 at 9:42am

बहुत-बहुत धन्यवाद ! महिमा श्री जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on August 7, 2013 at 9:41am

बहुत-बहुत धन्यवाद ! डाॅ0 आशुतोष मिश्रा जी !

Comment by MAHIMA SHREE on August 5, 2013 at 9:21pm

जिस्म ठंडा पड़ा था सुमन का,

कुछ हरारत सी आने लगी है
कब की मुरझा चुकी खुश्बुओं में,

जिन्दगी कुलबुलाने लगी है
गोद में तितलियों को उठाये,

झांक खिड़की से देखा हवा ने
खोल कर बेबसी के किवाड़े

फिर खुले में निकलने लगी है।.... सुंदर सकरात्मक रचना बधाई आपको

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 5, 2013 at 8:55pm

अग्निहोत्री जी ..हर पंक्ति लाजबाब है 

रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,

भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,

भोर के पुष्प चुप हो गये थे..पर ये पंक्तियाँ मेरे बिशेष आकर्षण का केंद्र रहीं ..सादर बधाई के साथ 

Comment by Sulabh Agnihotri on August 5, 2013 at 3:36pm

बहुत-बहुत धन्यवाद ! मीना पाठक जी !

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