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तुम्हारा प्रेम -
खुद तुम्हारा ही
गढ़ा  फलसफा
सुविधाजीवी सोच से
तौला हुआ
 नुक्सान नफ़ा
जब तुम कहते हो -
प्रेम है तुम्हें
बुनते हो
मोहक भ्रमजाल
अंतस- द्वीपों में
ज्यों भित्तियां
रचते प्रवाल

 
१- मित्रों की मंडली में
वह अनर्गल सी हंसी
देह के ही व्याकरण में
उलझकर रहती फंसी
 हो न सकती
उसमें मुखरित
सहचरी या प्रेयसी
जब तुम कहते हो-
प्रेम है तुम्हें
झूठ होता है
वह महिमामंडन
अपने ही
मानदंडों का
करता जो खंडन

 
२- आत्मा में तुम्हारी
गूंजा नहीं कोई शंखनाद
धडकनें संवेदना की
आस्था का आह्लाद
तमस में लिपटा तुम्हारा
वह कुटिल, भ्रामक प्रमाद...!
जब तुम कहते हो-
प्रेम है तुम्हें
तो करते हो कोई पाखंड
भुलावे में डालने वाले
कपट, छल छंद


(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 6:36pm

bahut khub shabd sanrachna , adarniya vinita ji

Comment by Shyam Narain Verma on July 23, 2013 at 3:38pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ..............

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