याद आ गया फिर
मुझे मेरा बचपन ,
पिता की उंगली थामे,
नन्हें कदमों से नापना,
दूरियाँ, चलते चलते ,
वो थक कर बैठ जाना ,
झुक कर फिर पिता का ,
मुझको गोदी उठाना ,
चलते चलते मेहनत का,
पाठ वो धीरे से समझाना ।
बच्चों पढ़ना है सुखदाई,
मिले इसी मे सभी भलाई,
पहले कुछ दिन कष्ट उठाना,
फिर सब दिन आनंद मनाना,
फिर आ गया याद,
उनका ये गुनगुनाना ,
सिर पर वो उनका हाथ,
भर देता है मुझमे नई,
उमंग,तरंग और स्फूर्ति ।
एक हूक सी उठती है ,
आज उनको न अपने,
पास पाती हूँ ,
साया सा महसूस करती हूँ,
इर्द गिर्द वो शायद ,
मेरे पिता का साया है ,
किसी कष्ट मे उनको
अपने पास ही पाया है ,
खुशियों मे उनको दूर ,
मुसकुराते पाया है ।
आज वो आँगन ,
एकदम खाली सा लगता है,
वो घर भी अब,
अजनबी सा लगता है ,
जिस के हर कोने मे ,
बसते थे मेरे पिता ...... अन्नपूर्णा बाजपेई
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
आदरणीय गुरु जी एवं आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
सचुमुच पिता का कोई बिकल्प नहीं है ..हर बच्चे की जिन्दगी में एक अहम् भूमिका होती है पिता की ..बहुत ही भाव प्रवणता के साथ उभारा है आपने अपने शब्दों के माध्यम से ..ढेर सारी बधाई के साथ
भावपूर्ण रचना प्रयास पर अतिशय बधाइयाँ, आदरणीया.
शुभ-शुभ
adarniya vinita ji apka hardik abhar .
adarniy laxaman prasad ji apka bahut abhar .
सुन्दर और प्रेरक भावों से सज्जित रचना. बधाई अन्नपूर्णा जी.
पिता का साया जिस दिन उठ जाता है, परिवार अनाथ सा महसूस करता है, घर आँगन खाली खाली सा लगता है,
कुछ दिन स्वजन अनमने से रहते है | इस भावो को सुन्दर रचना के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक
बधाई स्वीकारे अनुपमा बाजपई जी | सादर
aap sabhi adarniy mitron ko dhanyvad .
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ... |
बहुत भावपूर्ण रचना। आपको इस सुन्दर प्रयास पर हार्दिक बधाई!
रचना को कुछ समय और दीजिए। एडीटिंग से यह और निखर आएगी।
सादर!
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