बरसे बदरा नीर बहाये
ज्यों गोरी घूँघट शरमाये
चाल चले ऐसी मस्तानी
ज्यूँ बह चली पुरवा रानी
बादल गरजे प्रेमी तड़पे
झलक तेरी को गोरी तरसे
आजा अंगना दरस दिखा जा
नयन मेरे तू शीतल कर दे
ज्यूँ घटा का रूप लेके
यूँ लटें चेहरे पर छाई
मोती सी पानी की बूंदें
छलक रही चेहरे पर ऐसे
स्पर्श तेरा स्वर्णिम पाने को
पानी की बूँदें भी तरसे.
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीया आरती जी
सच कहूँ तो सिर्फ शाब्दिकता और बिखरा बिखरा भाव समायोजन लगा इस रचना में.
कथ्य विन्यास और बिम्ब भी बेतुके से लगे
अब देखिये
बरसे बदरा नीर बहाये
ज्यों गोरी घूँघट शरमाये...........इन दो पंक्तियों में ढूंढे से भी कोई समानता नहीं मिल रही मुझे
यह तो स्पष्ट होना ही चाहिये कि कुछ भावों की तुकबंदी मात्र को पेश कर देना..रचनाकर्म कतई नहीं कहलाता.
शुभकामनाएँ
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH सर...आभार...
आपका तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय जितेन्द्र जीत जी ..आभार..
मोती सी पानी की बूंदें
छलक रही चेहरे पर ऐसे
स्पर्श तेरा स्वर्णिम पाने को
पानी की बूँदें भी तरसे.
बहुत ही सुन्दर भाव और शब्द समन्वय!
आदरणीया..आरती जी, सुंदर रचना पर आपको हार्दिक बधाई
आपका तहेदिल से शुक्रिया आदरणीय श्याम जी..
होस्लाफ्ज़ाही के लिए तहेदिल से शुक्रिया प्रिय वेदिका जी...
आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीया राजेश मैम ...आभार
त्रुटी पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया आदरणीया अन्नपूरना जी..
प्यारी सी रचना बधाई आरती जी
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