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लघु कथा : दर्द (गणेश जी बागी)

ज फिर किसी ने पारस को चाकू मार दिया था, उसकी किस्मत अच्छी थी कि घाव बेहद मामूली था.  डाक्टर बाबू देखते ही पारस को पहचान गये, क्योंकि कोई आठ दस महीने पहले की ही तो बात है जब पारस के घर मे डकैती हुई थी और बदमाशों ने पारस के शरीर पर चाकू से अनगिन वार किये थे, तब इलाज के लिए उसे इसी डाक्टर के पास लाया गया था, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के बावजूद भी इस बहादुर नौजवान के मुँह से उफ़ तक नहीं निकली थी, लेकिन इस बार अत्यधिक दर्द से रोता बिलखता देख डाक्टर साहब को बहुत आश्चर्य हो रहा था, अत; उन्होंने पूछ ही लिया :

"अरे पारस इतना तो तुम पिछली बार भी नही रोये चिल्लाए थे जितना अब रो रहे हो, जबकि इस बार तो घाव भी मामूली सा है,

"डाक्टर साहब ! पिछली बार कुछ अजनबी बदमाशों ने मुझ पर वार किया था जिन्हे मैं जानता तक नही, पर इसबार वार करने वाला मेरा ............"

"मौलिक व अप्रकाशित"

पिछला पोस्ट => मर्द

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 15, 2013 at 8:03pm

आदरणीया प्राची जी, लघुकथा में निहित भाव हुबहू तक पहुँच सका, और लघुकथा पर प्रथम प्रतिक्रिया स्वरुप सराहना मिली, बहुत बहुत आभार . 

Comment by shashi purwar on July 15, 2013 at 7:18pm

sarthak laghukatha bagi ji

badhai aapko


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 6:06pm

अनकहे शब्द जब व्यक्त शब्दों से ज्यादा महत्त्व रखते हों तब प्रस्तुति की ख़ूबसूरती पर बस वाह ही निकलती है..

जब कोई अपना ही पीठ पर वार कर जाए तो भरोसे का तार तार होना कितना पीडादायी हो सकता है.. डाकुओं के खंजरों के वार तो हिम्मत से बरदाश कर भी लिए जाएँ पर, पर अपनों के खंजरों से टूटे भरोसे के गहरे ज़ख्म कभी नहीं भरते.

इस हृदय को स्पर्श करने वाली लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय गणेश जी 

सादर.

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