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प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े

प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
बहे विशाल वृक्ष जो थे उंघते खड़े खड़े  

बड़ी बड़ी शिलाओं के निशान आज मिट गये
न छत रही न घर रहा मचान आज मिट गये
हुआ प्रलय बड़ा विकट किसान आज मिट गये
सुने किसी की कौन के प्रधान आज मिट गये

पुजारियों के होश भी लगे हमें उड़े उड़े
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े

मदद के नाम पे वो अपने कद महज बढ़ा रहे
खबर की सुर्ख़ियों का वो यूँ लुत्फ़ भी उड़ा रहे
वहीं घनेरे मेघ काले छा के फिर चिढ़ा रहे
कहीं से आ रही सदा ये मर गया पड़ा रहे

ढकोसला था आस्था का जो तमाचे है जड़े
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े  

मौलिक और अप्रकाशित 


संदीप पटेल "दीप"


 


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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 16, 2013 at 12:49pm
आप सभी आदरणीय अग्रजों और सम्मानीय सदस्यों का हृदय की गहराइयों से धन्यवाद
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
समयाभाव और कुछ कारणों से समय कम दे पा रहा हूँ सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 9:34pm

* शब्दों के..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 9:34pm

अति सुंदर प्रिय संदीप जी, धब्दों के प्रवाह ने कलकल निनाद उत्पन्न कर दिया. दोनों ही पक्ष रचना में सुंदरता से मुखरित हुए हैं, बधाई.........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 14, 2013 at 9:26pm

प्रस्तुत रचनाकर्म के लिए बधाई,

शुभेच्छाएँ

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 12, 2013 at 11:05pm

आ0 संदीप भाई जी,  ... अतिसुन्दर प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by Shyam Narain Verma on July 12, 2013 at 5:14pm

अतिसुन्दर प्रस्तुति।   हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 12, 2013 at 4:54pm

प्राकृतिक त्रासदी का कुछ कारण मानव ही है ढकोसलों पर भी खूब प्रहार किया आपने अच्छी रचना ,बधाई आपको 

Comment by Sumit Naithani on July 12, 2013 at 4:24pm

अच्‍छी रचना

Comment by राजेश 'मृदु' on July 12, 2013 at 2:30pm

वाह-वाह आदरणीय, बहुत ही अच्‍छी रचना हुई है  कुछ जगहों पर कुछ रुकावट हुई जो आप भी जानते ही हैं कि कहां हुई होगी, सादर

कृपया ध्यान दे...

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