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ख्वाबों के दिन

ख्वाबों के दिन
ख्वाबों के दिन
कब मन को तड़पाते नहीं !
सुबह की पहली किरण
जब खिड़की पर थाप देती,
चिड़ियों की चहचहाहट से
जब खुलती हैं आँखें -
ज़िंदगी एक नयी करवट लेती हुई
बिस्तर की सलवटों पर
सिकुड़ी सिमटी सी , क्यों
तटस्थ हो जाती है ?
वक़्त का हर पल
एक सुनहरा ख्वाब दिखलाता है.
कुछ सपनों के दिन,
कुछ अधूरी रातें,
खुले नैनों के द्वार से
कहाँ दौड़े चले जाते है ?
एक कसमसाहट सी होती है -
अंगड़ाई लेती हुई,
सूर्य चंद्र स्वर गिनकर
पहला कदम धरती पर रखती हूँ.
दिन की शुरूआत हर सुबह
सिपाहियों से कतार में खड़ी
कई चुनौतियाँ देती है -
घड़ी की सुई की टिक टिक के साथ,
उतरते ही गले से पहले निवाले सम,
ख्वाबों के दिन , शून्य में
विलीन हो जाते हैं. ....और
जीवन के जंग का एक नया दौर
मेरे हिस्से में टँक जाता है .

शाम को एक युद्ध जीत कर भी
सांसों को चैन मिलता नहीं.
व्यथित मन तड़पता रहता है
चुनौती बनाकर -
ख्वाबों के दिन , सपनों की रातें.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 4, 2013 at 8:41am

ज़िन्दग़ी खूबसूरत है लेकिन इसकी खूबसूरती इतनी सहज नहीं होती. सूर्य औ चंद्र स्वर को गिनने का बिम्ब बड़ा अपना-अपना सा लगा.

एक भावमय प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया.. .

सादर

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