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सार्थक मन की दौड़ है (दोहे)


मानव दौड़ें राह पर, थकते उसके पाँव

आत्मा नापे दूरियाँ, नगर डगर हर गाँव |

 

थक जाते है पाँव जब, फूले उसकी साँस,

मन तो अविरल दौड़ता,मन में हो विश्वास |

 

सार्थक मन की दौड़ है, भौतिकता को छोड़

सही राह को जान ले, उसी राह पर दौड़ |

 

पञ्च तत्व से तन बना, जिसका होता अंत

बसते मन में प्राण है, जिसकी दौड़ अनंत |

भौतिकता को छोड़ कर, अंतर्मन की मान,

दिल गवाह जो भी करे, उस पर देना ध्यान

(मौलिक एवं स्वरचित)

 

-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

जयपुर दि. २९-५-२०१३ 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 30, 2013 at 7:15pm

दोहे पसंद कर मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री श्याम नारायण वर्मा जी | शुभ शुभ 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 30, 2013 at 6:17pm

 दोहे पसंद कर टिपण्णी करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री जवाहर लाल सिंह जी, एवं श्री राम शिरोमणि पाठक जी 

Comment by Shyam Narain Verma on May 30, 2013 at 5:13pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.....
Comment by ram shiromani pathak on May 30, 2013 at 4:41pm

आपने सुन्दर दोहे रचे है आदरणीय//// हार्दिक बधाई //

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 30, 2013 at 8:10am

भौतिकता को छोड़ कर, अंतर्मन की मान,

दिल गवाह जो भी करे, उस पर देना ध्यान.

अति सुन्दर !

कृपया ध्यान दे...

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