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संवेदना के शुष्क तरु
के सानिध्य में,
पुष्प प्रीति के,
ढूंढे जा रहे हैं
आज।
पत्थरों को ईश मान,
मंदिरों में घट बंधा,
घट-जलधार के पास से
पिपासाकुल खग...
भगाए जा रहें हैं
आज।
प्रसाधन-जनित
यज्ञशाला की अग्नि में,
आंच के भय से
आहुति,
सब घटा रहे हैं।
सुना है,देखा नहीं
भगवान औ भूत,दोनों
पर...ईशास्था से अभय
को नकार
भूत में विश्वास कर,
उर काँपते हैं आज।
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on May 29, 2013 at 2:53am

 

आदरणीया वंदना जी:

 

// संवेदना के शुष्क तरु

   के सानिध्य में,
   पुष्प प्रीति के,

   ढूंढे जा रहे हैं //

 

आपने समाज में, मंदिरों में जो प्रेक्षण किया है,

वह विचारणीय है और उसे रचना में साझा करने

के लिए धन्यवाद और बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 28, 2013 at 9:32pm

आ0 वंदना तिवारी जी, बहुत सुन्दर प्रसंग।---’संवेदना के शुष्क तरु
के सानिध्य में
पुष्प प्रीति के
ढूंढे जा रहे हैं
आज।
पत्थरों को ईश मान
मंदिरों में घट बंधा
घट.जलधार के पास से
पिपासाकुल खग--
भगाए जा रहें हैं’------- हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by coontee mukerji on May 28, 2013 at 2:14pm

वंदना जी , आपने बहुत ही गम्भीर विषय की ओर इशारा किया है......जब आपने इतना कुछ लिख ही दिया है तो कुछ आँखों देखी और विस्तार देजिये इस रचना की संपूर्णता के लिये......./

सादर

कुंती

Comment by Shyam Narain Verma on May 27, 2013 at 4:01pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

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