अश्रुओं से सींचता
हर स्वप्न मन का ,
प्रेम का प्रारब्ध
परिवर्तित विरह में ,
इन्द्र धनुषी हास
अधरों के निकट आ,
दे रहा प्रतिक्षण
प्रशिक्षण वेदना को !
आद्यंत डूबी श्रष्टि
मोही विवश सी,
मात्र आकर्षण -
विकर्षण की कहानी,
प्राण का उद्गम यही
आनंद प्रियतम,
प्रीति के अस्तित्व की
दुनिया दीवानी !
भोग से प्रारंभ होती
योग की यह यात्रा है ,
मैं नहीं सक्षम मिटाऊँ ,
किस तरह इस चाहना को,
किस तरह आलोचना
कर दूं ह्रदय के समर्पण की,
हारता मस्तिष्क अंतिम
विजय मिलती भावना को.....!!
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
सुन्दर....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
आदरणीया सादर, जीवन में प्रेम भाव का अपना महत्त्व है. सुन्दर रचना. बधाई.
कविता में भाव-शब्द भले लगे.
बधाई.
आदरणीया भावना जी!
बहुत सुंदर और प्रेरक काव्य प्रस्तुत किया आपने ..सभी आयामों को आपने काव्य में समाहित किया है ..
किस तरह आलोचना
कर दूं ह्रदय के समर्पण की,
हारता मस्तिष्क अंतिम
विजय मिलती भावना को.....!!
सहजता से पठनीय काव्य पर आपको अनंत शुभकामनायें
मैं नहीं सक्षम मिटाऊँ ,
किस तरह इस चाहना को,
किस तरह आलोचना
कर दूं ह्रदय के समर्पण की,
हारता मस्तिष्क अंतिम
विजय मिलती भावना को.... vaah bhavna ji bahut sundar panktiyan .... badhai sveekaar karen .
किस तरह आलोचना
कर दूं ह्रदय के समर्पण की,
हारता मस्तिष्क अंतिम
विजय मिलती भावना को.....!!
आपकी जय हो । बहुत सुंदर तरीके से हर भाव को शब्द प्रदान किए हैं आपने । हरेक पंक्ति सीधे संवाद करती है, सादर
प्रेम के प्रारब्ध से पराकाष्ठा तक प्रेम भावना से लिपटा होता है, मन भावन बयार उसे पल्लवित और पोषित करती है |
प्रेमयोग और भोग का केंद्र बिंदु भी कहाँ जो सकत़ा है | प्रस्तुति के लिए बधाई
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