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बचपन तुम बार बार

पीछे से बुलाते हो |

एक दिन सोचूंगी मैं  

कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं  

तितलियों से आगे 

कागज का जहाज

उडाऊं मैं |

अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है

और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है

पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं

इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं

तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं मैं|

 

जिस दिन थक कर चूर हो जाउंगी

और इस जंगल के लिए अवांछित  हो जाउंगी

झड चुके सूखे पत्तों में भी ठौर न पाऊंगी

तब जब खुद का बोझा उठा न पाउंगी|

और हरियाले जंगल से निष्काषित कर दी जाउंगी मैं......

उस दिन मेरे साथी मेरे बचपन

तुम पीपल की छाँव तले आना

मुझे अपने गले लगाना

भूल न जाना पुराना पगडंडियों वाला रस्ता

साथ में ले आना स्कूल का बस्ता

माँ के हाथ का टिफ्फिन रोटी खायेंगे   

फिर हम कागज की नाव बहायेंगे

तितलियों के पीछे उड़ते चले जायेंगे  

चन्दा की नगरी में

परियों की बस्ती में

एक बेफिक्र जीवन होगा 

अबकी न बिछडेंगे हम  

बचपन तुझसे मिलने आयेंगे हम ............................. 

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Comment

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2017 at 9:14pm

बहुत प्यारी रचना है | बधाई स्वीकारें आदरणीया |

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 25, 2013 at 4:26am

@अशोक जी @ सुरेंदर जी... आपका शुक्रिया 

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 25, 2013 at 4:25am

धन्यवाद डॉ प्राची सिंह जी... अभी इस पर और कार्य किया जाएगा ..सादर 

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 25, 2013 at 4:24am

@बृजेष कुमार जी ! आप का प्रश्न सही है... और जब कोई प्रश्न मन मे जागता है तो उसे पूछ लेना ही बेहतर होता है न कि वह प्रश्न मन के अंदर दम तोड़ ले..

१) कि का प्रयोग मन का अभी भी दो राहे मे खडा होना, उसे भविष्य मे भी स्पष्ट नहीं कि ऐसा हो भी पायेगा कि नहीं...

वैसे कि के बिना भी काम चल सकता है... लेकिन 'कि' अपनी बात पर अतिरिक्त दबाव देता है ... 

२) आखिरी पंक्ति मे 'हम' इसे मैंने पढ़ा और खुद मेरे मन ने ये हम क्यू लिख दिया  .. लेकिन उसे एडिट नहीं कर पायी... इसे अब सही कर दूंगी....

आपका सादर धन्यवाद 

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 25, 2013 at 4:08am

raam shiromani pathak ji... dhnyavaad ...

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 24, 2013 at 11:21pm

तब जब खुद का बोझा उठा न पाउंगी|

और हरियाले जंगल से निष्काषित कर दी जाउंगी मैं......

उस दिन मेरे साथी मेरे बचपन

तुम पीपल की छाँव तले आना

मुझे अपने गले लगाना

आदरणीया डॉ नूतन जी ....
जिन्दगी के अंतिम पड़ाव को दर्शाती और दर्द के साथ वचपन को दुलारती महत्त्व देती कोमल रचना ..वृजेश जी की बात पर भी गौर करियेगा ......जय श्री राधे 

भ्रमर ५ 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 24, 2013 at 10:08pm

बचपन की मीठी याद दिलाती सुन्दर रचना. बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 24, 2013 at 12:36pm

खूबसूरत कोमल भाव..

बचपन के निश्चिन्त पल, एक बार चले जाएँ तो लौट कर नहीं आते..दिल उन्हें बार बार जीना चाहता है, पर जिम्मेदारियों की बेड़ियाँ वापिस लौटने ही नहीं देती.. 

भाव बहुत सुन्दर हैं, पर शिल्प पर अभी और कसावट चाहिए... 

आदरणीय बृजेश जी के कहे से पूर्णतः सहमत हूँ...

शुभकामनाएं 

Comment by बृजेश नीरज on April 23, 2013 at 10:30pm

बहुत सुन्दर रचना आदरणीया! बचपन जीवन का वह सुखद दौर है जो जीवन में कभी भूले नहीं भूलता। जीवन की सारी आपाधापी, छल कपट के बीच बारबार अपनी ओर बुलाता रहता है। बधाई।

दो बातें कहना चाहता हूं जो मुझे अखरीं। वैसे आप मुझसे अधिक जानकार और प्रतिष्ठित हैं।

पहली बात -

//कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं // 

इस पंक्ति का प्रारम्भ ‘कि’ से किया जाना आवश्यक नहीं था।

दूसरी बात कि कविता प्रारम्भ में मैं की बात कर रही थी और अंत तक पहुंचकर हम की बात करने लगी।

//तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं मैं//

//बचपन तुझसे मिलने आयेंगे हम// 

 ये क्यों?

आशा है आप इसे कुचेष्टा न समझेंगी और अन्यथा न लेंगी।

सादर!

Comment by ram shiromani pathak on April 23, 2013 at 8:43pm

सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया ////////

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