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मैं कौन हू ,मैं क्या हू ,
नही जानता ,
 मैं खुद ही स्वयं को ,
नहीं पहचानता ,


 मैं स्वप्न हू या कोई हक़ीकत ,
मैं स्वयं हू या कोई वसीयत ,


जैसे किसी कॅन्वस पर उतारा हुआ ,
रंगों की बौछारों से मारा हुआ ,


हर किसी के स्वप्न की तामिर हू मैं ,
हक़ीकत नही निमित तस्वीर हू मैं ,


मैं रात हू किसी की ,
तो किसी का सबेरा ,
 मैं सबका जहाँ में ,
नही कोई मेरा ,


अपने ही अंदर खो सा गया हूँ मैं ,
जागते -जागते सो सा गया हूँ मैं ,


बहुत सोचता हूँ ,

समझ पता नहीं हूँ ,
 मैं  ज़िंदगी के गीत ,
क्यूँ गाता नहीं हूँ ,


जहाँ था वहीं ,
थम सा गया हूँ ,
कहीं अचानक राम सा गया हूँ ,


मुझे मेरे मन सुकून चाहिए ,
 मैं जी लूँ फिर से , वो ज़ुनून चाहिया ,


जानता हू क्या हूँ ,
मैं  क्या चाहता हूँ ,
"परम " किसी को मैं मानता हूँ ,


जो आएगा एक दिन सहारे लिए ,
मेरे लिए बहुत से किनारे लिए ,


एक किनारा लूँगा और सो जाऊँगा ,
बहुत दूर दुनिया से हो जाऊँगा ,


बस में , वो , और होगा सुकून ,
नये जीवन को जीने का नया जुनून .

अश्क

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 19, 2013 at 11:07am

//प्रस्तुत रचना को मूर्त रूप देना हो तो नुझे किस
विधा की ओर जाना पड़ेगा //

यह प्रश्न किसी रचनाकार की समझ, उसके विवेक और विधा पर उसकी पकड़ पर निर्भर करता है. वैसे अक्षरी/हिज्जे दोषों आदि के प्रति संवेदनशील रहना किसी रचनाकार के काव्य व्यक्तित्व का ही भाग होना चाहिये. इस रचना में उनका होना अखरा है.

वस्तुतः, रचनाकार स्वयं को चाहे कुछ समझे, अपने को लेकर चाहे जो कहे, उसके व्यक्तितत्व और अंतर्निहित गंभीरता का परिचायक उसकी रचना होती है. रचना का जैसा प्रस्तुतिकरण.. वैसा ही उसका काव्य व्यक्तित्व. क्योंकि, पाठकों से रचना ही संवाद बनाती है नकि रचनाकार. यानि रचनाकार भी पाठकों से अपनी रचनाओं के माध्यम से ही संवाद स्थापित करता है.

सादर

Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 19, 2013 at 10:38am

 श्र्धेय पांडे जी ,
आभार , आपके बहुमूल्य  मार्गदर्शन के लिए , 

अगर रख सको तो एक निशानी ,
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं..... ,
रोक पाए न जिसको ये सारी दुनिया,
वो एक बूँद आँख का पानी हूँ मैं.....,

प्रस्तुत रचना को मूर्त रूप देना हो तो नुझे किस
विधा की ओर जाना पड़ेगा ,
कृपया तकनीकी रूप से समझा सकें तो मेरे लिए 
आसान होगा ,

आपसे मुझे संबल मिलता है ,

सादर प्रणाम ,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 19, 2013 at 9:06am

आदरणीय अशोकजी,

आपके प्रश्न किसी रचनाकार के मन में सदा से उठने वाले प्रश्न हैं.

वस्तुतः रचना-प्रक्रिया या रचनाकर्म है क्या है, इसे हमें जानना होगा. फिर, विधा है क्या ? इसे समझना उससे भी महत्वपूर्ण है.

भावों का शाब्दिक प्रस्फुटिकरण रचनाकर्म है. अतः भावनाओं को शब्द देने की प्रक्रिया रचनाकर्म हुआ.

यदि संप्रेषण इंगितों में हो, बिम्बों का प्रयोग निहितार्थ हो, तो रचना काव्य रचना हुई. वह रचना किसी विशेष प्रारूप में हो तो उसकी विधा तय हुई ऐसा माना जाता है.

इस हिसाब से किसी रचना की विधा से आशय मात्र मात्रा या वर्ण के अनुसार साधी गयी पंक्तियाँ नहीं हैं. छंदमुक्त या स्वतंत्र रचनाओं की भी विधा होती है. यानि भावनाओं को शब्द मात्र देना प्रकृष्ट रचनाकर्म कभी नहीं होता. और आप विश्वास करें, आज की तारीख में अधिकांश तथाकथित रचनाकार यही कर रहे हैं.भावनाओं को भावुक या मुलायम शब्दों में लपेट कर परोस देना.

ओबीओ का आशय इसी तथाकथित कविताई को साधना है. हमारे मतानुसार विधा एक साधन है जिसकी सवारी कर रचना अपनी यात्रा करती है. साधन जितना परिपक्व और सुगढ़ होगा, रचना/कविता की यात्रा उतनी ही लम्बी होगी, उतनी सहज और सुगम यात्रा होगी.

यानि, विधा या साधन आवश्यक है चाहे वह अतुकांत रचना की विधा हो, छंदमुक्त रचना की विधा हो, मात्रिक या वर्णिक छंदों की विधा हो या कोई कविता हो, नवगीत या स्वतः स्फुर्त गीत हो. कई बार देखा गया है कि रचनाकार इन बातों को न समझे तो अतुकांत या स्वतंत्र कवितायें गद्य का टुकड़ा भर रह जाती हैं. वैसे नईकविता के नाम पर तमाम प्रयोग हुए हैं. मैं अभी आपको उधर नहीं ले जाना चाहता.

दूसरा महत्वपूर्ण विन्दु है, मानक विधाओं के समकक्ष यदि रचनागोई हुई हो तो उस विधा की संज्ञा का आदर करना किसी रचनाकार के लिए बहुत आवश्यक होना चाहिये. मान लीजिये कि ग़ज़ल की छाया लेती रचना हुई है तो फिर ग़ज़ल की विधा को नकारना रचनाकार की अनुशासनहीनता अधिक मानी जायेगी. इसी तरह गेय कविताओं में (जिसे गाया जा सके, जैसे गीत, मात्रिक कविता, नवगीत आदि) आवश्यक मात्रा का निर्वहन न करना रचनाकार की अकर्मण्यता अधिक समझ में आती है. 

इन तथ्यों के बाद रचनाओं में प्रयुक्त शब्द, उनके भावार्थ, उनके इंगित आदि के बारी आती है जो सतत प्रयास के कारण सधते जाते हैं.

एक बात अवश्य ही साझा करना चाहूँगा, आदरणीय, कि रचनाकर्म एक दायित्व है और तदनुरूप विशेष गुण है. भावुक होना या संवेदशील मात्र होना रचनाकार नहीं बना देता, बल्कि किसी रचनाकार के लिए संवेदनशील होना या भावुक होना बहुत आवश्यक है.

यह नियंता द्वारा प्रदत्त रचनाकार का विशेष गुण है कि वह काव्य रचना करता है. इसे स्वाध्याय द्वारा, सतत और दीर्घकालिक प्रयास से ही मान्य कसौटियों पर कसा जाता है.

सादर

Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 19, 2013 at 7:52am

श्र्धेय गुरुवर ,


सुप्रभात ,

सादर प्रणाम ,


आपकी समझाइश एवम् मार्गदर्शन के लिए आभार ,
क्या रचना किसी विधा को मद्देनजर रख कर की जाती है ,
एक कलाकार के लिए उसकी प्रस्तुति , अपने अंदर की
समग्र उर्जा को एक साकार रूप देना होता है ,
कला चाहे कोई भी हो ,
मैं कैसे जान सकूँगा , कि जो निकल कर आया है , वो किस विधा का है ,
या फिर पहले लिखूं , फिर मात्रा से मिलाउँ , तदुपरांत एक रचना का जन्म हो ,
कहीं इसमे जो वास्तविक भाव हें , वो पीछे नहीं छूट जाएँगे ,
कृपया मेरे संशय को दूर करें .

सादर

अश्क


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 18, 2013 at 10:58pm

आदरणीय अशोक भाईजी, आप जिस मंच पर हैं वहाँ मात्र भावनाओं की बाज़ीग़री नहीं चलती. आपका संप्रेषण या तो सटीक होता है या सटीक नहीं होता है.भाईजी, आपका संप्रेषण सटीक नहीं है. त्रुटिपूर्ण है, जिसकी ओर सुधी-पाठकों ने आपका ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है.  आप इसे स्वीकार कर तदनुरूप प्रयास करते हैं तो यह मंच सहयोगी होगा.

सादर

Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 18, 2013 at 10:29pm

माननीय पांडे जी ,


सादर प्रणाम ,


धारणा या अवधारणा मत्र प्रतीक हैं , कि कोई किस मनस्थिति मे
आकर सोचता है , मैं कभी भी अपने को परिपक्व और संपूर्ण नहीं मानता , यही
कारण हे की मेरी सोच आज भी उतनी ही अल्हड़ हे या कहिए
अगड़ हे ,उम्र की परिपक्वता और मन की अगड़ता , मुझ को जन्म देती हे ,
जैसा की मे हूँ , बाकी आप गुरुजन हैं .

बन चंद लबज़ , कागज पर बिखर जाता हूँ मैं ,
और जिस नज़र से देखिए , वैसा ही नज़र आता हूँ मैं .

सादर

अश्क


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 18, 2013 at 8:39pm

आप इतना कैजुअल शायद हैं नहीं, आदरणीय, जितना इस रचना का प्रस्तुतिकरण सुझा रहा है.

सादर

Comment by Rohit Singh Rajput on April 11, 2013 at 4:45pm

bahut hi badia h....ek sachi hakikkat...bas sahae k lie koi jarur aega do dnt wrry

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 11, 2013 at 12:43pm

अच्छी दुविधा है स्वयं को लेकर
कहीं कहीं भावनातमक कथ्य खूबसूरती से उभरा है रचना में
वही एक वजह भी है स्वयं से अन्भिग्य होने की
हम अपने वजूद को हमेशा दूसरे मे ही खोजते हैं
हम क्या हैं इसका आंकलन स्वयं न करके किसी और के भावनात्मक बंधन मे बँध उसकी उदारता को अपना परिचय मान लेते हैं और अंदाज़ा लगा लेते हैं के हम क्या हैं कौन हैं

सुंदर रचना के लिए बधाई हो आपको

Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 11, 2013 at 12:11am

आदरणीय ,

रम सा गया हू ,

हो सकता हे , की बोर्ड पर लिखने
मे अशुद्धि हो गयी हो ,
आशा हे नज़र अंदाज करेंगीं ,
धन्यवाद ,

सादर ,

कृपया ध्यान दे...

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