बह्रे मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
122/122/122/12
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न पीपल की छाया, न पोखर दिखे;
मेरे गाँव के खेत बंजर दिखे; (1)
हैं शुअरा जहाँ में बड़े नामवर,
मगर कब 'असद' सा सुख़नवर दिखे;(2)
कहूँ क्या मैं मा'शर की हालत हुई,
ज़ुबां पर ख़ुदा हाथ ख़ंजर दिखे;(3)
जो मज्लिस में तल्क़ीन दें सब्र की,
वो गोशे में आपे से बाहर दिखे;(4)
न मिल पाया बंदा कोई काम का,
जो लफ़्फ़ाज़ ढूँढ़े सरासर दिखे;(5)
लहू से रही सुर्ख़ बरसों ज़मीं,
ज़रा अब तो कश्मीरी केसर दिखे;(6)
बदल जाए ये बेख़ुदी होश में,
इक अर्सा हुआ तल्ख़ तेवर दिखे;(7)
बदन पर कफ़न सी सफ़ेदी न हो,
तेरे पाँव में फिर महावर दिखे; (8)
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;(9)
वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (10)
तमन्ना है 'वाहिद' मेरी बस यही,
मकां-रोटी सबको मयस्सर दिखे;(11)
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{16032013}
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मा'शर=मित्रमंडली; तल्क़ीन=सदुपदेश/नसीहत;
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी,
सादर प्रणाम! ग़ज़ल को आपकी पारखी नज़रों का अनुमोदन प्राप्त हुआ, आह्लादित हूँ! सादर,
भाई संदीप 'दीप' जी,
आपने सराहा मेरा मान बढ़ा! आपका हार्दिक धन्यवाद! :-)
पूरी ग़ज़ल एक संवेदनशील हृदय की व्यक्त हुई आह सी सामने आती है.
फिर भी इन अश’आर को बार-बार उद्धृत करना चाहूँगा.
न पीपल की छाया, न पोखर दिखे;
मेरे गाँव के खेत बंजर दिखे; (1)
जो मज्लिस में तल्क़ीन दें सब्र की,
वो गोशे में आपे से बाहर दिखे;(4)
लहू से रही सुर्ख़ बरसों ज़मीं,
ज़रा अब तो कश्मीरी केसर दिखे;(6)
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;(9)
वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (10)
तमन्ना है 'वाहिद' मेरी बस यही,
मकां-रोटी सबको मयस्सर दिखे;(11)
बहुत-बहुत बधाई संदीप भाईजी.
वाह वाह आदरणीय संदीप भाई सादर
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई है
हर इक शेर पे दाद क़ुबूल कीजिये
इस अशआर पर विशेष दाद कुबूलें
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;
जय हो
हार्दिक आभार एवं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ आदरणीय भ्रमर जी! आपसे तो सदैव ही मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त होता रहता है! सादर,
बदन पर कफ़न सी सफ़ेदी न हो,
तेरे पाँव में फिर महावर दिखे; (8)
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;(9)
वतन का भला हो मुक़र्रर तभी,
तरक़्क़ी जो हर सू बराबर दिखे; (
प्रिय वाहिद काशी वासी भाई जी आप की रचनाओं के।। छंदों के गजलों के क्लिष्ट शब्दों को समझने में ताकत तो बड़ी लगती है लेकिन ईर्ष्या भी होती है साथ साथ आनंद भी फिर भोले बाबा की कृपा आप पर यों ही बनी रहे तो हम भी सीखते ही रहें कुछ उर्दू फ़ारसी ......सुन्दर
आदरणीय जवाहर भाई, केवल प्रसाद जी, राम शिरोमणि जी, अरुन'अनंत' जी, राजेश जी, स्नेही अशोक जी एवं वंदना जी आप सभी के प्रोत्साहन हेतु अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ! सादर,
कड़ी धूप में वो निखरने लगा,
पसीना है मेहनत का ज़ेवर दिखे;............मेहनतकशों के लिए क्या खूब लिखा है वाह!
.....और मक्ता भी कमाल है.बहुत बहुत बधाई आदरणीय संदीप जी इतनी सुन्दर गजल के लिए.
तमन्ना है 'वाहिद' मेरी बस यही,
मकां-रोटी सबको मयस्सर दिखे;
तमन्ना पूरी हो हम भी दुआ करेंगें ।
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