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भावना अर्पण करूँ....नवगीत// डॉ० प्राची

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

गूँज लें सारी फिजाएँ

युगल मन मल्हार गाएँ

चंद्रिकामय बन चकोरी

प्रेम उद्घोषण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित

तोड़ कर हर बंध शापित

नेह पूरित निर्झरित उर

गान से तर्पण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

भाव झंकृत हृदय धड़कें

सुरमई सब स्वप्न थिरकें

सहज संवेदना स्वीकृत

सर्वदा हो प्रण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

उड़ चलूँ विस्तार लेकर

तर्कणों का सार लेकर

मरघटों की क्षुब्धता को

ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:24pm

आदरणीया विजयश्री जी,

मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है..

आपने इस नवगीत का रसास्वादन कर अपना बहुमूल्य स्नेह इस रचना को दिया, इस हेतु आपकी आभारी हूँ..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:22pm

आदरणीय आशीष सलिल जी,

रचना को आपनें अपनी रूह तक उतर जाने योग्य समझा, इससे ज्यादा मान एक रचना के लिए क्या हो सकता है?

आपकी हृदय से आभारी हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:19pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी,

नवगीत के अन्तर्निहित भावों और शब्द संयोजन को आपने सराह कर लेखन उत्साह का परिवर्धन किया है...आपकी हृदय से आभारी हूँ.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:17pm

आदरणीय केवल प्रसाद जी,

रचना के शब्द आपके मन को झंकृत कर सके, लेखन को और क्या चाहिए, सिर्फ पाठकों के हृदय में स्थान के सिवा.

इस हेतु आपका हार्दिक आभार.

..आदरणीय, इस रचना में कहीं भी नारी मन की कुंठा को शब्द नहीं दिए गए हैं, इसमें सिर्फ प्रीत की स्वीकारोक्ति और नेहातिरेक है.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:14pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी,

रचना के भावों के अन्तःस्थल को आप द्वारा मान मिला, इस हेतु आपकी हृदय से आभारी हूँ..सादर.

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 1, 2013 at 5:46pm

आदरेया प्राची दीदी बहुत ही सुन्दर गीत प्रस्तुत किया है आपने पाठ करते करते न जाने कहाँ खो गया, ह्रदय में उठ रहे भावों को कैसे व्यक्त करूँ क्या कहूँ शब्द मिल नहीं पा रहे हैं. इस तरह के गीत कभी कभी पढ़ने के लिए मिलते हैं. अन्य कुछ कहने की क्षमता नहीं है, हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by बृजेश नीरज on April 1, 2013 at 5:35pm

प्राची बहन आपका साधुवाद इस मर्मस्पर्शी रचना के लिए। रचना ने पाठक के मन में भी शुचि भावना जागृत कर दी।

Comment by vijay nikore on April 1, 2013 at 2:43pm

आदरणीया प्राची जी:


"रे मन करना आज सृजन वो"  के  बाद  "मनमीत तेरी प्रीत" और अब  "भावना अर्पण करूँ..."

यह एक और उच्च श्रेणी की रचना है जिसको पढ़ते-पढ़ते कोई लय बिना प्रयत्न के ओंठों पर

गीत-सी बन आती है, और आपकी कविता के शब्द  कविता समाप्त होने के बाद देर तक

अंतरमन में प्रतिगुंजित होते रहते हैं और आत्मीय बन जाते हैं।


मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित

तोड़ कर हर बंध शापित

नेह पूरित निर्झरित उर

गान से तर्पण करूँ...      ....अति सुन्दर!

 

ऐसी ही कविताओं की प्यास है ... आशा है, शीघ्र और पढ़ने को मिलेंगी और आस पूरी होगी।


सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 1, 2013 at 2:30pm

भाव संप्रेषण की वाचालता अपने अतिरेक में शब्दातीत ही हो जाती है. निवेदन की भाव-सान्द्रता शब्द-साधन को सबसे पहले नकारती है. उन अत्युच्च क्षणों में विह्वल प्राण की मनोदशा का सूक्ष्म वर्णन हुआ है.  पारस्परिक आर्द्रता में अभिसिंचित युगल मन द्वारा मल्हार राग  का गाना अभिनव प्रयोग लगा.  कहना न होगा, एक -एक पंक्ति प्राणवान है. तभी तो - मरघटों की क्षुब्धता को / ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...   अभिव्यक्त हो पाया है.

वाह !

शब्द-संयोजन सुन्दर है, यों, इसे तनिक और साधा जा सकता था.

यथा,  इस पंक्ति को देखा जाय - सहज संवेदना स्वीकृत / सर्वदा हो प्रण करूँ...

भाव-विह्वलता और आत्मोसर्ग की शुभता से अभिसिंचित इस रचना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, डॉ.प्राची. 

शुभ-शुभ

मरघटों की क्षुब्धता को

ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...

Comment by विजय मिश्र on April 1, 2013 at 1:39pm

 प्रसंशा के शब्द भी शब्दातीत हो गए हैं किन्तु शुचि भावना का अर्पण स्वीकारें ---- लोहा पीटनेवाला इससे ज्यादा नहीं व्यक्त कर पायेगा .प्राचीजी ! साधुवाद .

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