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धीरे धीरे शाम उतर आयी

धरती पर

मेरा इंतजार अभी भी बरकरार है

कि कब तेरा दीदार हो

और मेरी सुब्ह हो

 

तेरा जज्ब ए अमजद

या चाहत का असर

ओढ़ता बिछाता हूं तुझको

तुझसे ही दिन हो

और मेरी रात हो

 

तुमने सोचा नहीं

होगा कोई इंतजार में

पथराने लगी आंखें किसी की

तू नजर आए

तो मुझे कुछ आराम हो।

             - बृजेश नीरज

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 9:31pm

हम नज़्म किसे कहते हैं, भाई ?

आज़ाद नज़्म में भी कहना हो रहा है आजकल .. :-))))) 

Comment by बृजेश नीरज on March 16, 2013 at 9:25pm

आदरणीय सौरभ जी,
हो सकता है मेरे समझने में कुछ गलती हुई हो। इतना तो आश्वस्त हूं कि यह गज़ल नहीं है।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 8:10pm

इस प्रस्तुति को नज़्म क्यों कहा है आपने ?

हुई कोशिश के लिए बधाई.. .

Comment by बृजेश नीरज on March 15, 2013 at 7:21pm

आदरणीय योगी जी आपका आभार!

Comment by Yogi Saraswat on March 15, 2013 at 11:49am

तेरा जज्ब ए अमजद

या चाहत का असर

ओढ़ता बिछाता हूं तुझको

तुझसे ही दिन हो

और मेरी रात हो

बहुत खूब

कृपया ध्यान दे...

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