भारत, दुनिया का एक विशाल देश है और आबादी के लिहाज से देखें तो पूरे संसार में चीन के बाद इसका दूसरा स्थान है। इस तरह भारत में आज की स्थिति में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है, जिसे सत्ता पर काबिज होने के पहले हर पार्टी के नेता खत्म करने की दुहाई देते हैं, मगर हालात में किसी तरह का बदलाव नहीं होता। देश में केवल साल-दर-साल आबादी बढ़ती चली जा रही है और रोजगार का सृजन नहीं हो पा रहा है। ऐसे में देश के करोड़ों युवा, बेरोजगार हो गए हैं और इसका सीधा असर देश के विकास पर पड़ रहा है। यह भी माना जाता है कि पूरी दुनिया में युवाओं की जो संख्या है, उसमें भारत आगे है, लेकिन युवाओं को रोजगार देने का जो कार्य होने चाहिए, वह कमी अब भी बरकरार है।
अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने तीन दिवसीय दौरे पर पहली बार भारत आए। बराक के भारत आने के पहले और आने के बाद राजनीतिक हलकों के साथ कूटनीतिक तौर पर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अमेरिकी नीति जरूर भारत के हित में होगा। बराक के भाषणों में अधिकतर यही बात रही कि भारत में सांस्कृतिक विरासत है, जो दुनिया के किसी अन्य देशों में देखने को नहीं मिलता और उन्होंने महात्मा गांधी का गुणगान कर लोगों का मन मोह लेने की कोशिश की और वे इसमें सफल भी हुए। ओबामा जब भारत आए तो उन्होंने शुरूआत में ही कहा कि वे अमेरिका में बढ़ते बेरोजगारी को लेकर भारतीय कंपनियों के साथ करार करने आए हैं। इस नीति में भी बराक हुसैन, होशियार साबित हुए और करीब 20 कंपनियों ने अपनी हामी भरते हुए करोड़ों रूपये का निवेश करने की बात कही। इससे निश्चित ही अमेरिकी राश्ट्रपति गदगद हो गए हैं, किन्तु यहां भारत में इस बात की इन कंपनियों को चिंता नहीं है कि जो वे, देश में ही अपनी कंपनी का काम फैलाएं और भारत में बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने में सहयोग दें। केन्द्र में बैठी सरकार भी बराक ओबामा की इस नीति को नहीं समझ पाई कि वह केवल भारत को सशक्त राश्ट्र होने का हवाला देते हुए अपना काम साधने आए हैे। यही कारण है कि सरकार ने भी इस बात की चिंता नहीं की कि भारत में बेकार बैठे युवा बेरोजगारों का क्या होगा ? आखिर सरकार क्यों उनकी चिंता नहीं करती नजर आई। जब भारत में ही बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया है और यहां की सरकार उस गंभीर समस्या से निपटने कामयाब नहीं हो पा रही है, इस स्थिति में भी भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशों में निवेश की बात तो बेमानी लगती है। भारतीय कंपनियों के निवेश के बाद अमेरिका में करीब 50 हजार बेरोजगारों को रोजगार मिल जाएगा, इस प्रयास से तो अमेरिकियों की बांछें निश्चित ही खिल जाएंगी, लेकिन भारत में स्थिति किस तरह बिगड़ रही है, इस बात की फिक्र ऐसे हालात में कौन करेगा, यह कह पाना मुश्किल लगता है। यह तो वही हो गया, दिया तले अंधेरा या यूं कहें कि खुद के घर में अंधेरा छाया हुआ हो और हम दूसरों के घर का अंधेरा दूर करने निकल पड़ें। यह बातें भारत के किसी राज्य द्वारा किसी अन्य राज्यों के सहयोग की बात होती तो अलग थी, लेकिन यह मुद्दा एक देश से दूसरे देश का है। यहां पर भारत सरकार के नेतृत्वकर्ताओं को कूटनीतिक तौर पर लाभ-हानि क्या हो सकते हैं, यह भी विचार करने की जरूरत थी। सवाल यही है कि भारत में बीते कुछ दशकों में बेरोजगारी के हालात बद्तर हुए हैं और जिस तरह से आबादी भारत की बढ़ रही है, वह तो बेरोजगारी जैसी समस्या के तौर पर किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। आज भारत की आबादी केवल चीन से कम है और देश की जनसंख्या सवा अरब से ऊपर पहुंच गई है। यह भी माना जा रहा है कि भारत की आबादी आने वाले दस बरसों में करीब 2 अरब होने जाएगी। इस बात की कल्पना करने भर से जानकार सोच में पड़ जा रहे हैं, मगर सत्ता के मद में मशगूल नेताओं को इस समस्या की चिंता भला कैसे हो सकती है, उन्हें फिक्र जो अपनी कुर्सी की बनी रहती है। आंकड़ों के तौर पर भारत में आने वाले कुछ सालों में बेरोजगारी की समस्या किस रूप में निर्मित हो जाएगी, यह तो समझा ही जा सकता है, लेकिन देश की ऊंची कुर्सी में बैठे नीति-निर्धारकों की समझ में आए, तब ना।
देश में तीन प्रमुख समस्या ज्यादा गंभीर बन गई है, एक भ्रष्ट्राचार, दूसरी महंगाई और तीसरी बेरोजगारी। आबादी की दृष्टि से विचार करें तो बेरोजगारी की समस्या ज्यादा भयावह नजर आती है। बेरोजगारी को लेकर सरकार भी समय-समय पर चिंता जताती है, लेकिन इसके बाद, वही ढाक के तीन पात। बेरोजगारी जैसे मुद्दे में तल्खी आते ही सरकार में सत्ता की चाशनी के रस में डूबे राजनेता, यह भूल ही जाते हैं कि देश में कोई बेरोजगारी जैसी समस्या भी है। हर चुनाव के समय यह बात दोहराई जाती है कि भारत में बेरोजगारी खत्म कर दी जाएगी और ऐसी नीति बनाई जाएगी और स्वरोजगार को बढ़ाने का दंभ भरा जाता है, लेकिन जब चुनाव हो जाता है और सरकार बन जाती है, उसके बाद फिर तो इस दावे की ही हवा निकल जाती है। बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्या के बारे में भूलकर भी कोई राजनेता बात करना नहीं चाहता, क्योंकि अब तक तो केवल नेताओं द्वारा दावे किए जाते रहे हैं, इस बीमारी की कोई दवा ही ढूंढने की कोशिश नहीं की गई है। इसी का परिणाम है कि देश में आबादी जिस गति से बढ़ रही है, उसी गति से बेरोजगारी भी बढ़ रही है। बेरोजगारी के कारण देश के युवा गलत दिशा में मुड़ रहे हैं, आखिर इसका जिम्मेदार कौन है ? देश की कुर्सी के कर्णधारों को यदि इस समस्या से निजात दिलाने की मंशा होती तो निश्चित ही इस बात का खुले तौर पर विरोध होता कि क्यों भारतीय कंपनियां, अमेरिका में निवेश करे।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अमेरिका, भले ही शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपनी छवि बना लिया हो, लेकिन यह भी बात सही है कि 2008 में आई मंदी का असर अमेरिका के आर्थिक ढांचा को तहस-नहस कर दिया है। दो बरस पहले जब पूरी दुनिया में मंदी का दौर चला तो केवल दो ही देश ही गंभीर आर्थिक आफत से दूर रहे, वो थे, भारत और चीन। आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका में लाखों युवा रातों-रात सड़क पर आ गए और बेरोजगार हो गए, क्योंकि अमेरिका जैसे देश में काम के लाले पड़ गए। मंदी का थोड़ा भी असर भारत पर नहीं पड़ा, लेकिन भारतीय आर्थिक हालात में जैसा सुधार होना चाहिए, वैसा नहीं हुआ। नतीजा के रूप में देखा जा ही सकता है कि मंदी के बावजूद अमेरिका ने खुद को किस तरह संभाल लिया है और नए रोजगार के अवसर तलासने में जुट गया है, लेकिन भारत में इन परिस्थितियों के नहीं होने के बाद भी कभी किसी को यह सोचने की फुर्सत नहीं रही कि भारत में बढ़ती बेरोजगारी को कैसे रोका जाए ? ना ही उस समय सरकार कोशिश करती नजर आई और न ही अब कोई नीति बनाने के बारे में चिंतन करती दिख रही है। ऊपर से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सुर के सुर मिलाते हुए अमेरिका में भारतीय कंपनियों द्वारा करोड़ों रूपये का निवेश की जाती है तो यह तो भारत के बेरोजगारों के लिए सरकार की छलावा नीति ही कही जा सकती है। यहां सवाल यही है कि ऐसे हालात में भारत के बेरोजगारों का क्या होगा ?
राजकुमार साहू
लेखक इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकार हैं
जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा - 098934-94714
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