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देख धनी बलवान के, चिकने चिकने पात।
दुखिया दीन गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख खुद चल के आय।।

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।
नहीं रीति ऐसी रही, अपनी अपनी खेय।।

अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच।
इक दूजे की नहिं सुनें, लड़ा रहे हैं चोच।।

मन की इच्छा जानकर, चला शहर की ओर।
जाकर देखा जो वहाँ, मचा हुआ है शोर।।


                                      - बृजेश नीरज

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Comment by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 1:35pm

आपका आभार आदरणीय रविकर जी! आपका मार्गदर्शन मेरे पथ प्रदर्शक होगा।

Comment by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 1:32pm

आदरणीया प्राची जी,

इतने विस्तार से मार्गदर्शन के लिए आपका बहुत आभार!

आपका मार्गदर्शन बहुत सहायक हुआ। आगे के लिए भी आपके सुझाव मार्गदर्शक साबित होंगे। आपके द्वारा सुझाए संशोधन मैंने प्रस्तुत किए हैं।

एक बात जरूर पूछना चाहूंगा।

एक संशय मन में रह जाता है।

//....एक दूजे की न सुनते....में मात्रा १४ हो रही है//

‘ए’ का उच्चारण तो यहां लघु है फिर इसे दीर्घ मात्रा क्यों गिनें?

एक चैपाई उदाहरण के लिए प्रस्तुत करना चाहता हूं।

‘जलधि लांघि गए अचरज नाहीं’ यहां 16 मात्राएं ही तो हैं। ‘ए’ को लघु ही माना गया है।

सादर!

 

 

Comment by रविकर on March 3, 2013 at 12:51pm

बहुत बढ़िया प्रयास है आदरणीय-
बढ़िया भाव हैं -
आभार
कुछ सामान्य परिवर्तन से गेयता पर फर्क पड़ सकता है-
शेष पर विद्वान जन प्रकाश डालेंगे-
सादर-
देख धनी बलवान के, चिकने चिकने पात।
दुखिया दीन गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख खुद चल के आय।।

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।
नहीं रीति ऐसी रही, अपनी अपनी खेय।।

अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच।
इक दूजे की नहिँ सुने, लड़ा रहे हैं चोच।।

मन की इच्छा जानकर, चला शहर की ओर।
जाकर देखा जो वहाँ, मचा हुआ है शोर।।

Comment by pawan amba on March 3, 2013 at 12:39pm

अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच।
एक दूजे की न सुनते, लड़ा रहे हैं चोच।।...sach hai....

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 3, 2013 at 12:32pm

दोहों के प्रयास के लिए बधाई श्री ब्रिजेश नीरज जी, कमियों की और डॉ प्राची जी ने विस्तृत टिपण्णी करदी है | गौर करने योग्य है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 3, 2013 at 12:02pm

दोहा छंद पर सुन्दर प्रयास हुआ है आदरणीय बृजेश कुमार जी,

देख धनी बलवान के, चिकने चिकने पात।
दीन दुखिया गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।........यह दोहा शिल्पगत है, मात्राओं के अनुरूप है पर //दीन दुखिया गरीब के// इस चरण में गेयता बाधित हो रही है.

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख चलकर के आय।।....यह दोहा भी शिल्पगत है, पर //सुख चलकर के आय// को सुख चलकर खुद आये , करें तो कैसा रहेगा..( सुझाव मात्र है )

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।
सुख चलकर के आय, अपनी अपनी खेय।।... इस चरण //सुख चलकर के आय// में भी गेयता बाधित है .

अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच।
एक दूजे की न सुनते, लड़ा रहे हैं चोच।।....एक दूजे की न सुनते....में मात्रा १४ हो रही है.. यदि एक को इक कर दिया जाए तो मात्र १३ हो जायेगी
फिर भी गेयता बाधित ही लग रही है... इक दूजे की नहिं सुनें...ऐसा कर के देखिये

मन की इच्छा जानकर, चला शहर की ओर।
वहां जाकर देखा तो, मचा हुआ है शोर।।.............वहां जाकर देखा तो..यह किसी गद्य की पंक्ति सा प्रतीत होता है, इसमें भी गेयता बाधित है

बहुत सुन्दर प्रयास हुआ है आदरणीय, पर निरंतर प्रयास से यह छोटी छोटी बाधाएं भी पार हो जायेंगी , और बहुत ही जल्दी आप बिलकुल शिल्पगत और सधे हुए दोहों से मंच को समृद्ध करेंगे..

शुभेच्छाएँ

Comment by ram shiromani pathak on March 3, 2013 at 11:31am

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।
दूजों का जो दुख हरे, सुख चलकर के आय।।

आपके दोहे पढ़कर बड़े ज्ञानवर्धक है !!आदरणीय बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज) जी बधाई स्वीकारें !!!!!!!!!!!

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