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ग़ज़ल : कुरबतों में खुश न थे

कुरबतों में खुश न थे, फुर्क़तों का ग़म भी नहीं,
पहले जैसे वो अब नहीं, पहले जैसे हम भी नहीं ।

बात जो लब पर है रुकी, जान शायद लेकर रहे,
भूलने का दिल भी नहीं, कह दे इतना दम भी नहीं ।

फिर उदासी बढ़ने लगी, शाम से पहले क्या करें,
इक यहाँ तुम भी नहीं, दूसरे मौसम भी नहीं ।

इस परेशां से हाल में, कशमकश अपनी क्या कहें,
दिल न रोता ऐसा नहीं, आँख लेकिन नम भी नहीं ।

क्या वजह जो हम आपके, उम्र भर ना काबिल रहे,
हम भले रुस्तम नहीं, पर किसी से कम भी नहीं ।

2122 2212, 2122 2212

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Comment by राजेश 'मृदु' on February 26, 2013 at 11:04am

हरजीत साहब, बहुत बधाई इस गजल पर

Comment by Abhinav Arun on February 26, 2013 at 10:37am

श्री हरजीत जी पूरी ग़ज़ल ... हर शेर बहुत सुन्दर शानदार है हार्दिक बधाई !!

Comment by वीनस केसरी on February 26, 2013 at 12:41am

बहुत खूब आदरणीय
ढेरो दाद क़ुबूल फरमाएँ

ग़ज़ल के पहले मिसरे और आख़िरी मिसरे पर पुनः गौर फरमाएं

Comment by विजय मिश्र on February 25, 2013 at 11:42am

भाई हरजीत ! मैं यह जरूर तलाशने की कोशीश कियी कि अच्छी लगी क्यूँ ? समझ में  नहीं आया मगर पूरी ग़ज़ल का असरार पूरा है और अच्छी बनी है . बधाई .

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 24, 2013 at 4:49pm
आदरणीय खालसा जी! बहुत ही अच्छी गजल है।बधाई कुबूल कीजिये।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 24, 2013 at 4:03pm

आदरणीय खालसा साहब ग़ज़ल अच्छी कही है , दाद कुबूल करें ।

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