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               रक्तधार

विगत संबंधों से स्पंदन करती   

पुरानी रक्तधार

सूखी नदी-सी सूख चुकी है,

पर मात्र स्मृति किसी एक संबंध की

जैसे नदी के सूखे तल को

आ कर ज्वार-भाटा-सी भिगो देती है।

विसंगत प्रसंगों में समन्वय ढूँढते

कितने वियोगाँत दृश्य

दुहरा जाते हैं विप्लव-से झट से

                     मेरी आहत आँखों में ...

              

आज मैंने डाल पर देखा

कोई उदास आँखों वाला

ठिठुरता रक्ताक्त पक्षी,

आशंकित,

झिझक रहा था लौट आने को डाल पर,

और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर

क्षत-विक्षत हुआ था

               जिस डाल पर वह बार-बार।

... और मुझको लगा

           उस पक्षी का नाम ‘विजय’ था।

                           ---------

                                                    -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on February 19, 2013 at 8:37pm

आदरणीय ब्रजेश जी:

आपका शत-शत आभार।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on February 19, 2013 at 8:36pm

आदरणीय सौरभ भाई जी:

 

मेरी कविता को इतना मान देने के लिए

आपका हार्दिक आभार। ऐसे ही संबल

मिलता रहे । धन्यवाद।

 

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on February 19, 2013 at 8:30pm

आदरणीय राम शिरोमणि जी:

नमस्कार।

आपका हार्दिक धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by mrs manjari pandey on February 19, 2013 at 8:03pm

आदरणीय निकोर  जी आपलोगों की रचनाएँ पाठ होती हैं .सिखाती हैं। बधाई।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 19, 2013 at 7:54pm

आदरणीय विजय सर जी सादर

इस रचना में स्वयं से साक्षात्कार कर लिया 

बहुत् बहुत बधाई आपको

Comment by Arun Sri on February 19, 2013 at 6:29pm

ये सारे एहसास , कविता के एक एक शब्द मेरे हो जाते अगर अंतिम पंक्ति में "विजय" की जगह "अरुन" लिख देता ! :-) भाव और बिम्ब के बीच का समन्वय , शब्द और सम्प्रेषण सब मिलकर कुछ लिख गए हृदयपटल पर जिन्हें संजोने का मन करता है ! बहुत सुन्दर !

Comment by बृजेश नीरज on February 19, 2013 at 6:26pm

कोई उदास आँखों वाला

ठिठुरता रक्ताक्त पक्षी,

आशंकित,

झिझक रहा था लौट आने को डाल पर,

और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर

क्षत-विक्षत हुआ था

               जिस डाल पर वह बार-बार।

प्रणाम के साथ बधाई स्वीकार करें।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 19, 2013 at 4:29pm

कविता जब कवि के स्व को साझा करने लगे तो बिम्बों का आकलन गूढ़ हो जाता है. मनस के उत्स से स्मृतियों और तदनुरूप वृत्तियों का होता प्रवाह और भौतिक स्वरूप पर संवेदना का असर दोनों मिल कर व्यक्तित्व की रचना करते हैं.

आपकी रचना से भावुक होता चला गया, आदरणीय विजय भाईजी.. .  इस उच्च कथ्य के लिए हार्दिक धन्यवाद.. .

Comment by ram shiromani pathak on February 19, 2013 at 2:54pm

उत्तम अति उत्तम .................

सूखी नदी-सी सूख चुकी है,

पर मात्र स्मृति किसी एक संबंध की

जैसे नदी के सूखे तल को

आ कर ज्वार-भाटा-सी भिगो देती है।

विसंगत प्रसंगों में समन्वय ढूँढते

कितने वियोगाँत दृश्य

दुहरा जाते हैं विप्लव-से झट से

                     मेरी आहत आँखों में ...

प्रणाम सहित बधाई आपको !!!!!!!!!!!!!!!!

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