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गीत : ... सच है संजीव 'सलिल'

*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है  

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*

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Comment

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Comment by sanjiv verma 'salil' on February 20, 2013 at 12:58pm

आत्मीय प्राची जी, सौरभ जी, लक्ष्मण जी, रामशिरोमणि जी, संदीप जी, गणेश जी, विन्द्येश्वरी जी, तुषार जी, परवीन जी,

पढ़ा-गुना रचना को प्रियवर धन्य हुए हम धन्यवाद शत ...

वरे = वरण किया,
देना-पावना = देना-पाना या देना-लेना

Comment by Parveen Malik on February 18, 2013 at 11:49am

आदरणीय आचर्य जी ,

तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है. 
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

  सच्ची अभिव्यक्ति ... बधाई स्वीकारे श्रीमान जी 

Comment by Tushar Raj Rastogi on February 17, 2013 at 8:35pm

स्रजनात्मक रचना के लिए बधाई | आभार

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 17, 2013 at 6:32pm
आदरणीय आचार्य जी!सादर नमन!

//मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला //पावना//-देना सच है.

कितना गहन-गम्भीर भाव निस्सृत हुआ है।बलिहारी जाऊं।
गुरुदेव इस //पावना// शब्द का क्या अर्थ है?

तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.

//वरे// कुछ समझ में नहीं आया।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 17, 2013 at 12:34pm

//तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..//

क्या कहूँ आदरणीय इस रचना पर , शब्द साथ नहीं दे रहें हैं , बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना, आचार्य जी इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर नमन करता हूँ और बधाई प्रेषित करता हूँ ।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 17, 2013 at 11:27am

वाह वाह सर जी

बहता ही चला गया इस काव्य सरिता में

आहा क्या ही मधुर स्वरुप प्रस्तुत किया है प्रेम का

शब्दों में अपने भाव कह नहीं पा रहा हूँ

बहुत बहुत बधाई

आप से सदैव सीखने को मिलता है सर जी

अनुज का प्रणाम स्वीकारें

और स्नेह यूँ ही बनाये रखें ........

Comment by ram shiromani pathak on February 17, 2013 at 11:21am

आदरणीय संजीव जी,

सादर प्रणाम!!!!!!!!!!!!

और कुछ कहने की ज़रुरत नहीं  है ..........................

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 17, 2013 at 10:41am
आदरणीय श्री सौरभ जी और डॉ प्राची जी की टिप्पणियों से पुरतः सहमत होने के अतिरिक्त मेरे पास कुछ 
कहने को नहीं है आदरणीय श्री संजीव सलिल जी, मुझे लगता है निम्न पक्तियों के दार्शनिक तथ्य की 
समझ के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता -
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता. 
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 17, 2013 at 10:26am

ऐसी रचनाओं पर कुछ कहा नहीं जा सकता, आदरणीय आचार्यजी, बल्कि मुग्धावस्था में एक पाठक रोम-रोम में हो रही झंकार को जीता है. जिस अनुभव और समझ को आपने साझा किया है वह एक विन्दु के बाद की समझ है. नियंता हर पाठक को उस सोपान पर उर्ध्वाधर बढ़ने को नियत करे.

इन पंक्तियों पर बार-बार बधाई स्वीकार करें आदरणीय -

तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 17, 2013 at 10:14am

आदरणीय संजीव जी,

सादर प्रणाम!

आपकी यह रचना प्रेम को उत्कृष्टतम ऊंचाइयों पर जीती है.

भावों की शुचिता और कथ्यसान्द्रता पर मन मुग्ध है.

बहुत बहुत बधाई इस सृजन के लिए.

सादर.

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