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हंत! व्यथित है चित्रकारी (क्षणिका)

तुम्हारी झुकी पलकें जो देखी
तो शृंगार रस में डुबोकर तूलिका,
मन में कोई छवि बना ली
कि यकायक तुमने पलकें उठा ली ,
भाव बदला, रस बदला
आंखों में सुर्ख डोरों को देख
तूलिका का रंग बदला
सब समझ गया मैं रुप का पुजारी
जिसके अंग-अंग पर तूलिका चलती थी
तू नहीं रही अब वो नारी
नही बचा तुझमें स्पंदन
हंत ! व्यथित है चित्रकारी
**********************

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 4, 2013 at 5:22pm

आदरणीय लक्ष्मण जी आपने सही कहा एक बात और कहते  हैं ना चक्की में गेहूँ के साथ घुन भी पिस्ता है ,आज के दौर में तो विश्वास ही उठ चुका तो एक चित्रकार कि भावना को भी लोग टेढ़ी नजर से ही देखेंगे 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 4, 2013 at 5:13pm

एक चित्रकार के मन आत्मा में बसी प्रेरणा के भावों का साक्षात रूप जब भावहीन हो जाए, तो प्रेरणा विहीन हो वह जिस पीड़ा को अनुभव करता है, वह भाव किस चिंतन के गहरे सागर से खोज लायी आप राजेश जी , अद्भुत भाव है, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

दिल से बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत चिन्तन  व कहन के लिए.

सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 5:10pm

इस भौतिक वादी रंग बदलती दुनिया अगर व्यथित है तो स्रजनशील कलाकार,और विचारशील/ संवेदनशील लेखक और चिन्तक ।सुंदर अभिव्यक्ति  के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी 

 

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