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रे मन करना आज सृजन वो / डॉ. प्राची

रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर जो पार करा दे l

निश्छल प्रण से, शून्य स्मरण से
मूरत गढ़ना मृदु सिंचन से,
भाव महक हो चन्दन चन्दन
जो सोया चैतन्य जगा दे l

रे मन करना आज सृजन वो

भव सागर जो पार करा दे l

प्रबल अवनि हो, चकमक मणि हो
बधिर श्रव्य वह निर्मल ध्वनि हो,
शब्द कंप का निहित अर्थ हर
मन वीणा के तार गुंजा दे l

रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर जो पार करा दे l

हृदय नभश्वर मापे अम्बर
अमिय पिए, कर मंथित सागर,
अमर सुधा रस छलक छलक कर
तृप्त करे, मन-प्राण भिगा दे l

रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर जो पार करा दे l

निज सम्मोहन द्विजता बंधन
विलय करे हो ऐसा वंदन,
सत्य कटु और मधुर कल्पना
विलग! सेतु बन, मिलन करा दे l

रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर जो पार करा दे l

 
*सस्वर गायन गणेश जी "बागी"

इस गीत का ऑडियो फाइल (MP3) यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करें ..

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 14, 2013 at 5:58pm

आदरणीय सौरभ जी,

यह सीखते चलने की प्रक्रिया अनवरत चलती रहे, यही कामना है.

"साहित्यिक गीतों में गेयता एक अनिवार्य शर्त है. किंतु गेयता के कारण रचनाओं में साहित्य का आसन्न क्षरण कभी स्वीकार्य नहीं."

पथ प्रदर्शक की तरह कही गयी इस पंक्ति के लिए सादर आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 14, 2013 at 4:05pm

प्रिय प्राची आपकी यह रचना देर से पढ़ी इसका खेद है किन्तु पढ़ी तो मन को अन्दर तक साहित्यिक अमिय से सराबोर कर गई ,  तृप्त कर गई तारीफ के लिए शब्द कम पड़  रहे हैं बहुत बहुत बधाई इस अनुपम रचना हेतु 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 14, 2013 at 2:02pm

//वैसे मनन व वरण दो शब्द और हैं परन्तु स्मरण के अर्थ के सापेक्ष यह यहाँ कितने सार्थक लगेंगे, यह मुझे अभी समझ नहीं आ रहा है।//

पंक्ति में शून्य-स्मरण ही रहने दिया जाय.  मनन या वरण शब्द गीत के निहितार्थ से कत्तई मेल नहीं खाता. और ऐसे में गीत का कुल भावार्थ भी बदल जायेगा. दूसरे, गणेश जी को संभवतः उच्चारण दोष के कारण गेय-वाचन में कठिनाई पैदा हो रही है.

आगे, हमें समझना भी होगा कि साहित्यिक गीतों में गेयता एक अनिवार्य शर्त है. किंतु गेयता के कारण रचनाओं में साहित्य का आसन्न क्षरण कभी स्वीकार्य नहीं.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 14, 2013 at 12:19pm

आदरणीय गणेश जी,

बहुत बहुत आभार, आपने इस गीत को सराह कर लेखन कर्म को बहुत प्रोत्साहित किया है।
जबसे आपने मुझे ये दो अटकाव बताए हैं मैं भी सोच यही हूँ, कि क्या इन्हें बदला जाए।
पंक्ति "जो भवसागर पार करा दे, में उच्चारण करते समय 'जो' पर जोर आता है, जिससे वाच्य सम्प्रेषण में सृजन को महत्त्व मिलता है, 
पर यदि इसे "भाव सागर जो पार करा दे' कहते हैं तो या तो भवसागर की प्रबलता को ज्यादा महत्त्व मिलता है अथवा दोनों को ही नहीं "
"स्मरण" शब्द के उच्चारण में अटकाव अवश्य है, परन्तु यदि 'स्म' को जल्दी बोल जाते हैं तो वाचन में नहीं अटकता, और मात्रा  के अनुरूप यह है। वैसे मनन व वरण दो शब्द और हैं परन्तु स्मरण के अर्थ के सापेक्ष यह यहाँ कितने सार्थक लगेंगे, यह मुझे अभी समझ नहीं आ रहा है।
आपकी सद्कामना निहित टिपण्णी से रचना कर्म को मान मिला है आदरणीय, इस हेतु ह्रदय से आपकी आभारी हूँ 
सादर।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 14, 2013 at 11:14am

इस गीत को मैं पिछले कई दिनों से गाने का प्रयास कर रहा हूँ , एक जगह अटक भी रहा हूँ , हो सकता है जिस स्वर को मैं पकड़ रहा हूँ, उसके कारण हो या मैं उच्चारण नहीं कर पा रहा हूँ उसके वजह से हो ....  वो शब्द है

शून्य स्मरण से

साथ ही मैं मुखड़े की दूसरी पक्ति को थोड़ा बदल कर ठीक से गा पा रहा हूँ ।

जो भव सागर पार करा दे

भव सागर जो पार करा दे l

सब मिलाकर कहूँ तो बहुत ही सुन्दर गीत, जिसके लिए लेखिका को बधाई देना तो बनता ही है । कोटिश: बधाई स्वीकार करें आदरणीया डॉ साहिबा ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 14, 2013 at 10:29am

आदरणीय सौरभ जी, गलती से हुई इस गलती नें इस रचना के उक्त बंद को बहुत सुन्दर अर्थ प्रदान किया है। यदि मैं इस अर्थ की गहनता को अनुभव नहीं कर पाती तो शायद इसे बदल देती, परन्तु अब इस अर्थ में मन मुग्ध है, और आगे की पंक्तियों से इसका तारतम्य बहुत श्रेष्ठ और उच्च प्रतीत हो रहा है,,,,,,

अमर सुधा रस छलक छलक कर,
तृप्त करे, मन प्राण भिगा दे,,,,,,,,,,जैसे अंतर्नाद का गुंजन सुनता कोई कपाल से टपकती अमृत बूंदों के रसास्वादन में शिवमय हो जाय।
हार्दिक आभार।
सादर 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 13, 2013 at 8:33pm

जी, वही तो. 

संस्कृत भाषा में -  नभः + चर = नभश्चर ..  हिन्दी में वही नभचर हुआ.

यही नभचर अन्य संदर्भ में खग होता है,  [ख (आकाश) + ग (गमन करने वाला) =खग]

डॉ.प्राची,  अच्छा हुआ, आपके गीत की पंक्ति में शब्द नभश्वर टंकित हो गया था. जिससे हम नभ-स्वर के रूप में निभा पाये. नभ-स्वर एक सामासिक शब्द है, नभ और स्वर का द्वंद्व समास.  आपके इस गीत में यह सामासिक शब्द अत्यंत सटीक बन पड़ेगा, कृपया रहने दें.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 13, 2013 at 5:15pm

नभश्वर न हो कर शायद सही शब्द  'नभश्चर' है, 

नभश्चर'

वि० [सं० नभस्√चर् (गति)+ट] आकाश में चलनेवाला। आकाशचारी। पुं० १. देवता। २. पक्षी। ३. बादल। मेघ। ४. वायु। हवा। ५. ग्रह, नक्षत्र आदि।

'नभ स्वर ' का अर्थ बहुत गूढ़ है, इस शब्द को  यदि आपने रख कर पड़ा है , तो रचना अवश्य ही बहुत गहन अर्थ देती है, 

इस नए शब्द , और इसके अर्थ से अवगत कराने के लिए आपका कोटिशः आभार आदरणीय सौरभ जी, सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 13, 2013 at 4:17pm

पक्षी के लिए नभचर उपयुक्त पर्याय है, आदरणीया. यह मैं जानता हूँ.

किन्तु, नभ-स्वर नाद  --आहत या अनाहत/अनहद--  के गुँजायमान गुरु-गंभीर घोष का पर्याय होगा. इस घोषमान स्वर को योग सूत्र के समाधि पाद (प्रथम पाद) के सत्ताइसवें सूत्र में तस्य वाचकः प्रणवः अर्थात् उस (परम सत्ता) का विवेचन (नाम या संज्ञा) प्रणव अर्थात ऊँ है, ऐसा कह कर सम्मान दिया गया है. मैंने आपकी पंक्ति में इसी शब्द को साध कर गीत का वाचन किया है. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 13, 2013 at 3:53pm

आदरणीय सौरभ जी,

इस रचना पर आपकी प्रतिक्रिया का मुझे इंतज़ार था. क्योंकि, शायद मैंने भी यह रचना लिख कर जब इसे पड़ा तो मुझे भी यह अपनी आज तक की सर्वोत्तम कृति ही प्रतीत हुई थी.पर रचनाकारों की रचनाओं पर आपकी समीक्षात्मक टिप्पणियां उन्हें कभी आत्म मुग्ध होने नहीं देतीं, इसलिए मैं आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रही थी.

आपके अनमोल प्रोत्साहन के लिए ह्रदय से आभार आदरणीय.

बघिर शब्द गलत है, बहरे के लिए बधिर शब्द होता है, अभी आपके इंगित करने के बाद शब्दकोष में जांचा, तो मालूम हुआ.

नभश्वर शब्द को मैंने पक्षी का पर्यायवाची जान प्रयुक्त किया है, क्या यह शब्द गलत है? मेरी पुस्तक में यही है... शायद टंकण त्रुटी हो पुस्तक में, क्योंकि उसमें कुछ गलतियाँ हैं.आप सही बताएं तो कृपा होगी.

सादर.

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