ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
गुलशन उजड़ने से
सहमीं हैं कलियाँ,
पंखों को सिमटाये
दुबकी तितलियाँ,
कर्कश सा चिल्लाये भंवरा क्यों हर क्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
बुझी दीप की लौ
है फैला अँधेरा,
प्रज्ञा को तम के
कलुष नें है घेरा,
खिले फिर से रश्मि करे तम का भक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज कलियों का रक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
Comment
बुझी दीप की लौ
है फैला अँधेरा,
प्रज्ञा को तम के
कलुष नें है घेरा,
खिले फिर से रश्मि
करे तम का भक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
आदरणीय प्राची जी,
सादर
सहमत
बधाई
आपकी शुभकामनाओं के लिए हार्दिक आभार आदरणीय विजय निकोर जी
आदरणीया प्राची जी,
कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज
कलियों का रक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण
यह पंक्तियाँ कितना-कुछ कह रही हैं!
काश, हर कोई आपकी इस कविता को पढ़े।
साधुवाद।
विजय निकोर
रचना निहित संवेदना को मान देने के लिए आभार प्रिय राजेश कुमार झा जी
आपकी संवेदना में हमारा भी सुर मिले और एक ऐसे समाज की रचना हो जहां फिर ऐसा वक्त ना आए । बढि़या चित्रण के लिए हार्दिक शुभकामनाएं, बधाई नहीं दूंगा क्योंकि यह आपकी संवेदना का अपमान होगा, सादर
हार्दिक आभार प्रिय महिमा जी
यह रचना आपके ह्रदय को छू सकी इसलिए आभारी हूँ आपकी ,
नववर्ष आपके लिए भी बहुत मंगलमय हो.
सस्नेह
कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज
कलियों का रक्षण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम....
आदरणीया प्राची जी ..
ह्रदय को झकझोर देनेवाली रचना .. आशा है नववर्ष में समाज में सकरात्मक बदलाव आये ..सोच बदलें .
नववर्ष की आपको सपरिवार बधाइयाँ और शुभकामनाएं
आदरणीय सौरभ जी
दामिनी की मौत नें झकझोर दिया है, पूरा देश एक सुर में समाधान चाहता है.
समयाभाव के बावजूद भी आप इस रचना को वक़्त दे पाए और अपनी शुभकामनाएं संप्रेषित कर सके, इस हेतु आपकी ह्रदय से आभारी हूँ. सादर.
आदरणीय संजीव जी,
सादर आभार, इस अभिव्यक्ति निहित संवेदना के साथ अपनी बुलंद आवाज में इसे संबल प्रदान करने के लिए.
कैसे हुआ वक़्त
इतना विषैला,
क्यों कर हुआ है
मनस इतना मैला,
कैसे करें आज
कलियों का रक्षण,
चलचित्र सा घूम गया वर्तमान. बहुत ही प्रभावोत्पादक पंक्तियाँ हैं, डॉ.प्राची.
समयाभाव है, वर्ना इतनी अच्छी रचना से वंचित रहना किसे अच्छा लगता है. आपको बार-बार बधाई, आदरणीया.
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