व्यंग्य रचना:
हो गया इंसां कमीना...
संजीव 'सलिल'
*
गली थी सुनसान, कुतिया एक थी जाती अकेली.
दिखे कुछ कुत्ते, सहम संकुचा गठी थी वह नवेली..
कहा कुत्तों ने: 'न डरिए, श्वान हैं इंसां नहीं हम.
आंच इज्जत पर न आयेगी, भरोसा रखें मैडम..
जाइए चाहे जहाँ सर उठा, है खतरा न कोई.
आदमी से दूर रहिए, शराफत उसने है खोई..'
कहा कुतिया ने:'करें हडताल लेकर एक नारा.
आदमी खुद को कहे कुत्ता नहीं हमको गवारा..'
'ठीक कहती हो बहिन तुम, जानवर कुछ तुरत बोले.
मांग हो अब जानवर खुद को नहीं इंसां बोले.
थे सभी सहमत, न अब इन्सान को मुंह लगायेंगे.
हो गया लुच्चा कमीना, आदमी को बताएँगे..
*****
Comment
प्राची जी, शुभ्रा जी आपकी गुणग्राहकता को नमन.
आपकी इस व्यंग काव्य रचना ने इन्सान को अपने अन्दर झाकने पर मजबूर करता है ,बहुत बहुत बधाई
इंसान के निकृष्टतम स्वरुप पर अपनी वेदना को सुगढ़ता के साथ व्यंगबद्ध करने के लिए हार्दिक बधाई. सादर.
अनंत जी, लक्ष्मण जी, शालिनी जी, अशोक जी, सत्य नारायण जी, सीमा जी, सौरभ जी
मेरी शर्म और पीड़ा को साँझा करने के लिए आपका आभार.
संस्कार हम शिक्षितों के बीच हास्य-परिहास की चीज़ बनकर रह गया है. तबतक कोई उम्मीद नहीं जबतक हम पिस्सु-पिल्लुओं की ग़लीज़ ज़िन्दग़ी न जीने लगें. इसके बाद ही कुछ उम्मीद जगती है. जब देश ग्लानि और क्रोध में धधक रहा है, इसी दिल्ली में घिनौनी हरकतों की एक बार फिर से वारदात हुई है. बंगाल से रोने की आवाज़ आयी है.
एक अच्छी व्यंग्य रचना के लिए सादर बधाई.
सभ्यता और संस्कार का अंतर स्वयंम इंसान ने अपनी करतूतों समाप्त कर दिया है .........सत्य को सत्य कहती रचना
आदरणीय सलिलजी
इस रचना के माध्यम से आपने इक्कीसवी सदी के इन्सान पर करारा व्यंग कसा है बहुत बहुत धन्यवाद
कहा कुतिया ने:'करें हडताल लेकर एक नारा.
आदमी खुद को कहे कुत्ता नहीं हमको गवारा..'..........जान ले अब इंसान.
सुन्दर रचना आद.सलिल जी
बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति
इंसान पर व्यंग करती रचना ने भी हमें शर्मसार होने को मजबूर कर दिया
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