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ग़ज़ल नo-१ (योगराज प्रभाकर)

नफरत का अन्धकार यूं फैला दिखाई दे
नाम-ओ-निशान अमन का मिटता दिखाई दे !

काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !

जिनको भी ऐतमाद है अपनी उड़ान पर
उनको आसमान भी छोटा दिखाई दे !

वो शख्स जिसकी नींद ही खुलती हो शाम को,
उसको ये आफताब क्यूँ चढ़ता दिखाई दे !

खिड़की ही जब नहीं है कोई घर के सामने,
फिर कैसे भला चाँद का टुकड़ा दिखाई दे !

श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?
श्रद्धा हो ग़र तो हर नदी गंगा दिखाई दे

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 5, 2010 at 9:53am
भाई संजय सिंह जी, आपको मेरी ग़ज़ल पसंद आई - ज़र्रा नवाजी है आपकी ! हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 5, 2010 at 9:51am
आदरणीय ADMIN जी, Open Book Inline परिवार का हिस्सा बनना मेरे लिए बायस-ए-नाज़ है ! सभी मित्रों ने जिस तरह दिल और बाहें खोलकर मुझ अदना को इतना मान दिया मैं उस के लिए हमेशा सब का शुकर-गुज़ार रहूँगा !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 5, 2010 at 9:45am
मित्रवर श्री अमरेन्द्र कुमार जी, प्रीतम तिवारी जी, उस समय पंजाब प्रदेश में आतंकवाद का पूरे ज़ोरों पर था जब यह ग़ज़ल मैने कही थी ! पहला मतला उसी दुखद दौर कि तर्जुमानी करता है ! हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !
Comment by Admin on May 4, 2010 at 5:07pm
सर्वप्रथम ओपन बुक्स ऑनलाइन पर आपके पहले पोस्ट का तहेदिल से स्वागत है, बहुत ही अच्छा लगा जो आपने अपने खुबसूरत गजल से इस बगिया को महकाया, ये आपकी रचना बहुत ही उम्द्दा है, कुछ शेयर तो बिलकुल दिल को छूने वाली है, जैसे ....

काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !

श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?
श्रद्धा हो ग़र तो हर नदी गंगा दिखाई दे ,

ये दोनों शेयर तो बहुत ही मार्मिक बना है, कुल मिलकर ये एक शानदार रचना है, ऐसी रचनाओ का आगे भी हमे सिद्दत से इंतजार रहेगा, इस पोस्ट के लिये दिल से शुक्रिया ,
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on May 4, 2010 at 2:46pm
bahut badhiya yograj jee.......
नफरत का अन्धकार यूं फैला दिखाई दे
नाम-ओ-निशान अमन का मिटता दिखाई दे !
bahut acchi rachna hai ye aapki.....dhanyabaad yahan humlogo ke beech share karne ke liye...

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