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ज्यादा क्या कोई फर्क नहीं मिलता
हुक्के की गुड़गुड़ाहटों की आवाज़ में
चाहे वो आ रही हों फटी एड़ियों वाले ऊंची धोती पहने मतदाता के आँगन से
या कि लाल-नीली बत्तियों के भीतर के कोट-सूट से...
नहीं समझ आता ये कोरस है या एकल गान
जब अलापते हैं एक ही आवाज़ पाषाण युग के कायदे क़ानून की पगड़ियां या टाई बांधे
हाथ में डिग्री पकड़े और लाठी वाले भी
किसी बरगद या पीपल के गोल चबूतरे पर विराजकर
तो कोई आवाजरोधी शीशों वाले ए सी केबिन में..

गरियाना तालिबान को, पाकिस्तान को शगल है
या वैसा ही जैसे खैनी फांकना या चबाना पान रोज़ शाम
कूट देने की बातें सरहद के उस तरफ के आसमान के नीचे पनपे कट्टरपंथियों को
जिससे कि बना रहे मुगालता दुनिया के आकाओं को
हमारे सच में विकासशील होने का
सच में 'ब्रौड माइंडेड' हो जाने का, बड़े दिल वाले तो पहले ही मानते हैं सब..
कभी पबों से रात के दूसरे-तीसरे पहर में दौड़ा दी गई आधी दुनिया को दौड़ाते कैक्टसों को सींचना
खुद को सांस्कृतिक मूल्यों के तथाकथित पहरेदार मानकर..
फिर जताना अफ़सोस, करना घोर निंदा, पानी पी-पीकर कोसना
पड़ोसी हठधर्मियों द्वारा चौदह साला बच्ची को भूनने पर गोली से...

कभी अमर-उजाला या आजतक में
नाबालिग के संग अनाचार की ख़बरें पढ़-सुन
चिल्ला कर देना गालियाँ कुकर्मियों की मम्मियों को, अम्मियों को, बहनों को
और उनके अब्बों को, पप्पों, बब्बों को बख्श देना
इधर घिनयाना और अपने यार-व्यवहार-रिश्तेदार के लड़के को
धौला कुआं जैसी किसी जगह 'उस मनहूस रात' हादसे की शिकार हुई लड़की संग
ब्याहने से समझाना-रोकना..

या अभी आरोपों की बारिश में नील के रंग के उतरने से डरे
एक खिसियाये वजीर का हुआ-हुआ करना
और बिन इम्तिहान अर्श पर पहुंचे जनाबों का कहना फर्श वालों को जाहिल-गंवार..
दिन-दहाड़े पब्लिकली सगा होना मीडिया का
जबकि रात के हमप्याला बनाते गिलास
चश्मदीद हों रिहर्सल के

सब खूब हैं, अच्छे विषय हैं चर्चा के
उबले अंडे, प्याज, नमकीन, बेसनवाली मूंगफली, पकौड़ी,
चखना या मुर्ग और चालीस प्रतिशत से ऊपर वाले किसी भी अल्कोहल के साथ..
कोई 'जहाँ चार यार...' भी लगा दे तो क्या बात..
दीपक मशाल

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 21, 2012 at 3:29pm

गरियाना तालिबान को, पाकिस्तान को शगल है
या वैसा ही जैसे खैनी फांकना या चबाना पान रोज़ शाम
कूट देने की बातें सरहद के उस तरफ के आसमान के नीचे पनपे कट्टरपंथियों को
जिससे कि बना रहे मुगालता दुनिया के आकाओं को
हमारे सच में विकासशील होने का..

ओफ्फ्हो .

बधाई 

Comment by Dipak Mashal on December 17, 2012 at 6:58pm

आदरणीय अजय जी, सौरभ जी, राजेश कुमारी जी और वीनस सोच से इत्तेफाक रखने के लिए आप सभी का शुक्रिया। सौरभ जी ने वास्तव में कविता के मूल तत्त्व की विवेचना की है, आभार।

Comment by Dr.Ajay Khare on December 17, 2012 at 2:52pm

deepak ji aapki rachana bikul deepak ki lo ki tarah he jo roshni de rahi he badhai


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 17, 2012 at 10:20am

आधुनिकता की दौड़ में पिसते संस्कार चारो  ओर गला काट प्रतिद्वंदिता कमजोर के सर पर पैर रख कर होती भाग दौड़ कहाँ जा रही है जिन्दगी देख कर मन में वितृष्णा और आक्रोश जन्म लेते हैं और कलम अपना धर्म निभाती है ,बहुत अच्छा लगा आपकी रचना आपके भाव पढ़ कर बहुत बहुत बधाई आपको |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 17, 2012 at 9:17am

वैसे तो प्रथम दृष्टतया इस कैनवास पर भी दिखते रंग वही हैं जिसे हर कूँची और कैनवास वाला निहायत अपने ढंग से अपने-अपने कैनवास पर पोतता फिरता है. लेकिन यहाँ केवल उतना ही नहीं है जितना दिख रहा है. वस्तुतः, कोई अभिव्यक्ति कैनवास पर प्रयुक्त रंगों के सीधे-सीधे प्रयोगों मात्र से संप्रेष्य नहीं होती, बल्कि मुखर होती है उन रंगों के परस्पर मिलने वाली जगह पर गजबजाये शेड्स के रुपायन से. यहाँ ऐसे शेड्स समाज की विद्रुप सोच को पूरी धमक के साथ स्वर देते हैं.

यह रचना आज के छद्म विचारकों और नियंताओं की बखूबी खबर लेती है, चाहे वे जिस भी रूप में हों या जहाँ के हों. या, भदेसपन और अक्खड़पन में धौंस जमाती उनकी इकाइयाँ हों या कमीनी स्तरीयता के मुखौटों के पीछे छिपी सफ़ेदपोशों का जामा पहनी उनकी इकाइयाँ हों. दोनों स्तरों पर एकतरह का पिशाच-नृत्य हो रहा है जो ज़िन्दा इकाइयों के कदम तय करने में लगा है. और यही इस रचनाकार की पीड़ा है. कॉस्मोपोलिटन शाब्दिकता से सधी हुई इस रचना का इंगित वे ही बहुसंख्य हैं जो इन पैशाचिक सोचवालों के निशाने पर हैं. प्रस्तुत वैचारिक-रचना के लिए दीपक मशालजी को हार्दिक बधाई.

Comment by वीनस केसरी on December 17, 2012 at 3:11am

और बिन इम्तिहान अर्श पर पहुंचे जनाबों का कहना फर्श वालों को जाहिल-गंवार..

आय हाय भाई जिंदाबाद

Comment by वीनस केसरी on December 17, 2012 at 3:08am

दीपक जी,

बंधन मुक्त हो कर आपने रचना में इतना कुछ बाँध लिया है कि दिल खुश हो गया
अनंत को समेटने की ख्वाहिश और कोशिश को देखने महसूस करने और जीने की चाह सभी को होती है
आज उस चाह के एक लघु प्रयास पढ़ा और महसूस किया है
आपको ह्रदय तल से हार्दिक बधाई

कृपया ध्यान दे...

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