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ग़ज़ल-तेरा लोटा तेरा चश्मा

ग़ज़ल

कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है
डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |

तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू
तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |

बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो
सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |

वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं
वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |

चुने जाते ही नेता सारे वादे भूल जाते हैं
यह वोटर किस छलावे में भला हर बार बिकता है |

ये कलियुग है ठगी की इन्तेहाँ होती नहीं कोई
सुना है नेट पर दिल्ली का क़ुतुब मीनार बिकता है |

करप्शन इस कदर हावी शहर के अस्पतालों में
दवा के वास्ते हर रोज़ ही बीमार बिकता है |

(लेखकीय :- पूज्य बापू को प्रणाम करते हुए ! ऐसी गज़लें लिखते हुए लिखने के सुख और संतोष से ज्यादा व्यवस्था के प्रति गहन दुःख होता है |)

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Comment by Abhinav Arun on October 31, 2010 at 5:05pm
आदरणीय कल्पना जी,सर्वश्री राकेश जी ,गणेश जी और नवीन जी ग़ज़ल आपने पढी ,पसंद की ,आभार स्वीकारें |आप सब की प्रशंसा मेरा संबल बनेगी और अच्छा लिखने की प्रेरणा देगी |

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 31, 2010 at 10:27am
इक आह निकलता है इस व्यवस्था के वास्ते,
वाह निकलता है इस खुबसूरत ग़ज़ल के वास्ते,

अरुण भाई, कुछ नहीं छोड़ा आपने , बिलकुल लताड़ कर रख दिया है, बेहतरीन ग़ज़ल, बधाई और दाद कुबूल कीजिये |

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