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मैं यमुना ही बोल रही हूं

तेरे वादे कूट-पीस कर
अपने रग में घोल रही हूं
खबर सही है ठीक सुना है
मैं यमुना ही बोल रही हूं

पथ खोया पहचान भुलाई
बार-बार आवाज लगाई
महल गगन से ऊंचे चढ़कर
तुमने हरपल गाज गिराई

मेरे दर्द से तेरे ठहाके
जाने कब से तोल रही हूं
लिखना जनपथ रोज कहानी
मैं जख्‍मों को खोल रही हूं

ले लो सारे तीर्थ तुम्‍हारे
और फिरा दो मेरा पानी
या फिर बैठ मजे से लिखना
एक थी यमुना खूब था पानी

बड़े यत्‍न से तेरी अमानत
गाद-गाद में घोल रही हूं
रहना रहबर सदा सलामत
मैं तो यूं ही बोल रही हूं ।

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 6, 2012 at 6:18pm

मै यमुना ही बोल रही हूँ सुन्दर भावो को अभिव्यक्त करती रचना हार्दिक बधाई स्वीकारे भाई राजेश कुमार झा जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 6, 2012 at 5:35pm

नदी की आत्मा की आवाज बहुत को सुन्दर शब्द मिले हैं..

लिखना जनपथ रोज कहानी
मैं जख्‍मों को खोल रही हूं...वाह! यमुना एक्शन प्लान की विफलता के पीछे सियासती कारणों कर बढ़िया कटाक्ष हुआ है. 

हार्दिक बधाई इस कविता पर 

Comment by राजेश 'मृदु' on December 6, 2012 at 5:16pm

कविता का संज्ञान लेने और अपनी उपस्थिति से प्रेरित करने हेतु आप सबका हार्दिक आभार

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 6, 2012 at 4:33pm

राजेश जी लाजवाब कविता है सर मन को झकझोरती हुई सीधे ह्रदय में बस गई बधाई स्वीकारें

Comment by MAHIMA SHREE on December 6, 2012 at 4:18pm

ले लो सारे तीर्थ तुम्‍हारे
और फिरा दो मेरा पानी
या फिर बैठ मजे से लिखना
एक थी यमुना खूब था पानी

बड़े यत्‍न से तेरी अमानत
गाद-गाद में घोल रही हूं
रहना रहबर सदा सलामत

वाह वाह !! बहुत ही सुंदर अभिवयक्ति . राजेश जी .बहुत -2 बधाई आपको


मैं तो यूं ही बोल रही हूं....

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2012 at 3:59pm


क्या बात है बेहद खूबसूरत लिखा है आपने सादर बधाई आपको और बाकी का गुरुदेव ने कह ही दिया है ग़जब


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2012 at 2:41pm

इस कविता ने वस्तुतः आज ज़िन्दा लेकिन रोज़ मरती हुई नदी के दर्द को उभारा है.

लिखना जनपथ रोज कहानी
मैं जख्‍मों को खोल रही हूं ...  .   बहुत खूब ! सही है, सरकारिया लापरवाही आज अक्षम्य अपराध की सीमाएँ पार कर गयी है.

ले लो सारे तीर्थ तुम्‍हारे
और फिरा दो मेरा पानी
या फिर बैठ मजे से लिखना
एक थी यमुना खूब था पानी... .  भरोसे की टूटन को क्या सुन्दर शब्द मिले हैं !

इस कविता के लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ, राजेशभाईजी.

मुझे अपनी एक ग़ज़ल का मतला याद आ गया, आपकी प्रस्तुत कविता के स्वर में दुहरा रहा हूँ -

दर्द दे, ज़ख़्म दे.. सता कर दे -
इस नदी को मग़र समन्दर दे ..

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