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"माँ"


(ये मेरी पहली कोशिश है ग़ज़ल लिखनें की... जहाँ गलती हो कृपया करके बे'झिझक बताएं... शुक्रिया...!!)


सख्त रास्तों पर भी आसान सफ़र लगता है...
ये मुझे माँ की दुआओं का असर लगता है...!!

हो जाती है, बोझिल आँखें जब रोते-रोते...
माँ से फ़िर मुश्किल चुराना ये नज़र लगता है...!!

नहीं आती नींद इन मखमली बिस्तरों पर...
माँ की थपकियों का यादों में जब मंज़र लगता है...!!

सोचती हूँ कैसे चुकाऊं पाउंगी क़र्ज़ मैं तेरा...
ममता के समंदर में मेरा प्यार इक लहर लगता है...!!

एक अरसा हुआ मेरी माँ नहीं थी सोई, जब...
मैंने इक बार कहा था माँ मुझे रातों को डर लगता है...!!

ना रहा जब से साया मेरी माँ का मुझपे...
जानें क्यों बेगाना-सा मुझे मेरा घर लगता है...!!

लम्हा कोई हो, हर पहर हो चली सहर लगता है...
तुझसे मिलनें को माँ 'चाहत'-ऐ-दिल को क्यों रास्ता अब ज़हर लगता है...!!

::::::::जूली मुलानी::::::::
::::::::Julie Mulani:::::::

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Comment by Julie on October 22, 2010 at 11:52am
शुक्रिया ताहिर जी... "अज़ेर" जी की "घज़ल्शाला" हमनें ज्वाइन की हुई है पर वक़्त की कमी की वजह से वहां उपस्तिथ नहीं हो पाती... कोशिश करुँगी... और जो आपनें कहा उसे भी ज़ेहन में रख के अगली बार ग़ज़ल लिखूंगी... बहुत बहुत शुक्रिया आपना हौंसलाअफजाई का...!! :-)
Comment by विवेक मिश्र on October 22, 2010 at 10:24am
'एक अरसा हुआ मेरी माँ नहीं थी सोई, जब...
मैंने इक बार कहा था माँ मुझे रातों को डर लगता है...!!'
ग़ज़ल लिखने के लिए उम्दा ख्यालों का होना सबसे जरूरी होता है और आपके इस शे'अर ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
क्योंकि मुझे भी 'बहर' आदि का ज्यादा ज्ञान नहीं है, इसलिए ग़ज़ल लिखने के दौरान, बस दो चीज़ें, मैं अपने ज़ेहन में रखता हूँ. दोनों मिसरों (पंक्तियों) की लम्बाई लगभग समान रहे और ग़ज़ल के हर शे'अर को पढने में एक बराबर का ही वक़्त लगे. शुरूआती दौर में, आप भी ऐसे ही प्रयास कर सकती हैं.. बाकी इस विषय पर और ज्यादा जानकारी के लिए, आदरणीय पुरुषोत्तम अब्बी 'अज़ेर' साहब की 'ग़ज़लशाला ' वाली क्लास ज्वाइन करें.

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