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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३३ (सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है)

उम्र कब तलक गिराबांरेनफस को उठाती है

कमरेकी हवा भी अब खिड़कियों से जाती है 

 

माहोसाल गुज़रे दिलके अंधेरों में रहते रहते

तारीकियोंसे भी अब कोई रौशनीसी आती है 

 

तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह

सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है

 

मुझमें भी हैं हसरतें इक आम इंसाँ की तरह

माना कि मैं एक बेमाया दिया हूँ पे बाती है

 

एक उज़लतअंगेज शाम तेरे गेसू में आ बसी  

एक अल्साई सुबह तेरी आँखोंमें मुस्कुराती है   

 

तुझसे वो छेड़- छाड़, वो तेरा रूठना मचलना  

मुझको मेरी नादानियों की बड़ी याद आती है

 

मैं जाता था तेरे दर से उठ के ये सोचते हुए

कितनी हस्रत लिए ज़िंदगी ज़िंदगीसे जाती है

 

मुहब्बत हो नहीं सकती कामिल जुज़राहेवस्ल

तेरी वही इक गलतफ़हमी आज भी दुखाती है

 

ये दिन क्यूँ इतना ठहरा-ठहरासा है दीवारों पे

क्या ये भी हमारी तरह रंजूर -ओ-जज़्बाती है  

 

जहाँ बसी है तेरे दामनकी बूएसदरंग अभी भी

मुझ को उस दयार की सोंधी मिट्टी बुलाती है

 

न उठो बज़्मसे अभी कि ठहरो कुछ देर और

आस्तानेपे मुंतज़िर इक आखरी मुलाकाती है    

 

राज़ से क्यूँ पूछते हो बाईसे उदासियाँ उसकी

ये मसअला बहुत संजीदा और बहुत ज़ाती है

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, रविवार २३/०९/२०१२, प्रातःकाल १०.२२

 

गिराबांरेनफस- साँसों का बोझ; माहोसाल- महीने और साल; तारीकियोंसे- अंधेरों से; बेजा- अनुचित, असंगत; शगल- आदत; बेमाया दिया- बिना तेल का दिया; उज़लतअंगेज शाम- ईश्वरीय एकांत को पैदा करनेवाले शाम; गेसू- अलक, ज़ुल्फ़; कामिल- पूर्ण; जुज़राहेवस्ल- मिलन की राह के अलावा; रंजूर -ओ-जज़्बाती- दुखी और भावुक; बूएसदरंग- सौ रंगों वाली खुश्बू; दयार- जगज, प्रदेश; बज़्म- महफ़िल, सभा; आस्तानेपे- ड्योढ़ी/चौखट पे; मुंतजिर- प्रातीक्षारत; संजीदा- मुलाकाती- मिलाने वाला; गंभीर; ज़ाती- व्यक्तिगत  

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Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 6:48pm

क्षमा करें लक्ष्मण जी, मैंने आपका मेसेज मिस किया क्यूंकि यद्यपि मैं ऑनलाइन था, मैं कम्पूटर के पास नहीं था. ज़ानूबज़ानू का अर्थ हुआ घुटने से घुटने मिलकर बैठना, पार्श्ववर्ती, अगल-बगल. सादर/

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 24, 2012 at 5:11pm
यह मासूमियत सी तशरीह है, या अज्ञानता 
जानू ब जानू का ही अर्थ मै रहता रहा ढूंढता
 
ये मेरी खुश किस्मती कि राज मिला मस्ताना
गंभीर औ गहरे भावो में खलल को सहे याराना  
 
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला,जयपुर 
Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 4:31pm

हा हा हा हा, आदरणीय लक्ष्मण जी, आप गंभीर माहौल को भी हल्का बना देने की काबिलियत रखते हैं, मैंने अक्सरहा आपके कम्मेंट्स पढकर खुद को हल्का महसूस किया है क्यूंकि साथ में आपकी मासूम सी तशरीह (व्याख्या) अंदर कहीं गुदीगुदी सी पैदा कर देती है! 

सादर! 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 24, 2012 at 4:03pm

बेहद उम्दा गजले लिखते है आप, ओबीओ से जुड़ने का खूब शुक्रिया, हमें आपकी गजल पढने को मिल रही है |

बस हमें न तो गजल का ज्ञान है और न ही उर्दू के शब्दों का, वर्ना दिल और खुशगवार हो जाता | 

तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह ------ इस चाहत में तो मुहब्बत का इजहार होता होगा 

सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है          इसे बेजा या सिगरेट की शगल से तुलना न करो 

 बहुत खूब आदरणीय राज नवदावी जी                 भले जलाती हो खुद को, इस तरह यादो में,

                                                                           मगर इसमें सुखद अहसास भी तो होता होगा |

Comment by seema agrawal on September 24, 2012 at 12:51pm

वाह क्या बात है राज़ जी ........

इक नदी ही तो है समन्दर नहीं,

बहती रहती है कि कोई घर नहीं................

Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 10:28am

इक नदी ही तो है समन्दर नहीं, बहती रहती है कि कोई घर नहीं, मौजों सी उठती गिरती हैं मेरी पलकें, राह देखता हूँ उसकी कोई खबर नहीं, आह कि इस गमेगेती में (दुःख भरे जहाँ में) अपना, होता अब और गुज़र नहीं...

आदरणीया सीमाजी, आपकी शुभकामनाओं का शुक्रिया; आपकी सुंदर पंक्तियों ने जैसे दो कदम रखे, तो मैं भी रवां हो गया तखय्युल की राह! 

सादर!  

Comment by seema agrawal on September 24, 2012 at 10:15am

वाह क्या क्या लिख जाते हैं राज़ जी आप बहुत कुछ नहीं कह पाऊँगी  'वाह' के अलावा  

मन के भीतर संवेगों की एक नदी सी बहती है 
कभी कभी चुपचाप सरकती 
कभी बहुत कुछ कहती है ...इस नदी को बहते रहिये ...शुभकामनाएँ 

Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 9:47am

आदरणीया राजेश जी, आपकी हौसलाअफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया. क्या बात है, दाद भी उसी रदीफोकाफिये में!  एक बार फिर से शुक्रिया! 

Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 9:45am

Dear Ajay Bhai, thanks for reading my couplets and liking them. This encourages me in an unbounded way and also gives me pleasure of sharing. Regards! आपकी तहसीन का बहुत बहुत शुक्रिया! 

Comment by ajay sharma on September 23, 2012 at 10:57pm

मैं जाता था तेरे दर से उठ के ये सोचते हुए

कितनी हस्रत लिए ज़िंदगी ज़िंदगीसे जाती है

न उठो बज़्मसे अभी कि ठहरो कुछ देर और

आस्तानेपे मुंतज़िर इक आखरी मुलाकाती है 

wah wah wah , baki sher bhi qabil-e.daad hai thanks for such nice sharing 

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