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व्यथा जमाई की (हास्य) : मनहरण घनाक्षरी

ससुर जी ये कब का, तूने बैर है निकाला,
काहे अपनी बेटी को, सर पे मेरे डाला |

लड़की है वो या फिर, बकबक की टोकरी,
साल भर हुआ नहीं, सरका है दिवाला |

पाक कला ज्ञात नहीं, देर जगे बात नहीं,
फिल्म देखे रात नहीं, अटका है निवाला |

मान गया रूप बड़ा, गुण भी कोई चीज है,
बोले बिना जान सके, क्या कहे घरवाला ||

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 24, 2012 at 7:11am
आदरणीय रक्ताले सर, उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
Comment by Ashok Kumar Raktale on August 23, 2012 at 11:41pm

लड़की है वो या फिर, बकबक की टोकरी,
साल भर हुआ नहीं, सरका है दिवाला |

बहुत बढ़िया गौरव जी.

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 22, 2012 at 6:44pm

आपका हार्दिक आभार आदरणीय मित्रवर राजेश कुमार झा जी......

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 22, 2012 at 6:42pm

आदरणीया रेखा जी........रचना को पसंद करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.........

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 22, 2012 at 6:40pm

आदरणीय मित्र संदीप जी........आपकी प्रेमपूर्ण प्रतिक्रिया तो सदैव उत्साहवर्धक होती है.......हार्दिक आभार........

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 22, 2012 at 6:38pm

आदरणीय सतीश मापतपुरी सर, आपने जिस मुक्तकंठ से उत्साहवर्धन किया उसके लिए आपका आभारी हूँ........स्नेह बनाये रखियेगा......

Comment by राजेश 'मृदु' on August 22, 2012 at 1:34pm

मजेदार रचना और तिसपर मनहरण घनाक्षरी, मन हर ले गई आपकी रचना

Comment by Rekha Joshi on August 22, 2012 at 1:03pm

पाक कला ज्ञात नहीं, देर जगे बात नहीं,
फिल्म देखे रात नहीं, अटका है निवाला |,बहुत खूब गौरव जी ,बधाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on August 22, 2012 at 12:48pm

बहुत सुन्दर हास्य रस में भिगोती हुई छंद रचना के लिए बधाई आदरणीय

Comment by satish mapatpuri on August 22, 2012 at 3:00am

सच कहें तो गौरव जी आपने सबकी कह डाला है .... लख -लख मुबारकां जी

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