जिस राह में तुम साथ न हो ,
रास्ता वीराना लगता है
यूँ तो हजारों थे साथ मगर
फिर भी अकेलापन लगता है
जब तन्हाई में तनहा होता हूँ
यादों की मुंडेर पर बैठकर
यादें चुनने लगता हूँ
उस बिखरे सन्नाटे में
तुमसे बातें करने लगता हूँ
जानता हु की तुम मुझसे दूर बहुत
लेकिन अहसास तुम्हारा लगता है
आंसू सूख गए शायद
या किसने रोका होगा
आँखों में सागर मुझको
बंधित बंधित लगता है
जब दर्पण देखूं तो प्रतिबिम्ब
फटा फटा सा लगता है
नज़रें साथ नहीं देती
या फिर दर्पण टूटा लगता है
मेरा आँगन अब मुझको
कहाँ सुहाना लगता है
जब किसी कोने दुबक कर
पगला मन रोने लगता है
मैं अब दीप नहीं प्रज्वलित करता
अपने उस आँगन में
अँधेरा साथ नहीं देता
उजालों से डर लगता है
कितने ही मौसम आए
कितने ही गुजर गए अब तक
पर अब तक मुझको ,
पतझड़ का मौसम लगता है
अंतर्मन की घाटी में
याद का पहरा रहता है
एक एक पल उसके बिन
कल्पों पर भारी लगता है
एकाकी बैठे होते है हम
और दरवाजे पर आहट होती है
शायद लौट कर आ गया
मन में ऐसा लगता है
माँ कहती है खाना खा लो
कब भूख प्यास हमें लगती है
प्रथम कौर जब मुह में लेता
गले में अटका लगता है
वो मित्रों का मनुहार हमें
कब अच्छा लगता है
माँ कहती है क्या हुआ है
रोग नया सा लगता है
भीड़ भाड़ की दुनिया में
अब कुछ भी हमें नहीं भाता
गहन अंधेरों में एकाकी हो
एकांत सुहाना लगता है
योगेश शिवहरे
Comment
अच्छे भाव गुंथे हैं सुन्दर रचना में.... योगेश जी बधाई.
बेहद सुन्दर योगेश जी बधाई स्वीकारें
वो मित्रों का मनुहार हमें
कब अच्छा लगता है
माँ कहती है क्या हुआ है
रोग नया सा लगता है
भीड़ भाड़ की दुनिया में
अब कुछ भी हमें नहीं भाता
गहन अंधेरों में एकाकी हो
एकांत सुहाना लगता है
मनोभावों का सहज और सुन्दर वर्णन ..हाँ कभी कभी ऐसा अँधेरे में बैठना सोचना गुमसुम खो जाना सच में बड़ा प्यारा न्यारा लगता है ..जय श्री राधे .....भ्रमर ५
बहुत बहुत आभार आदरणीय रेखा जी ,आप लोगों ने हौसला आफजाई के लिए शुक्रिया
भीड़ भाड़ की दुनिया में
अब कुछ भी हमें नहीं भाता
गहन अंधेरों में एकाकी हो
एकांत सुहाना लगता है,अति सुंदर अभिव्यक्ति योगेश जी ,बधाई
बहुत बहुत आभारी हूँ लक्ष्मण जी ,अपनी टिप्पणी dekar इसे खूबसूरत बनाने के लिए पुनः आभार
आपने प्रतिक्रिया दी अच्छा लगा...आदरणीय सूरज जी
बहुत ही सुंदर भाव समेटे बेहद खूबसूरत कविता के लिए बहुत बहुत बधाई योगेश !!! अति सुंदर !!
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