बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं भी गोया मुझसे यही पूछ रहीं थीं कि जहां मैं अपनी खालिस नौइयत में हूँ वहाँ से लोग क्यूँ कूच कर जाते हैं. कार अपनी रफ़्तार में आगे चलती जा रही थी और स्लेट सी साफ़ सड़क पीछे.
हम चिंतामणि कस्बा पहुँच चुके थे इसका एहसास लाउडस्पीकर से आती तेज आवाज़ के गोशों से टकराने से हुआ. जुबां कन्नड़ थी चुनांचे फहम से उसका कुछ वास्ता न हुआ पे हाफिजे में तफुलियत से वबस्ता यादें ताज़ा हो गईं कि कैसे हमारे अपने आबाई शहर नवादा (बिहार) में रोज़ाना अहलेफरोश चीख चीख कर चूहों के मारने की दवा खरीदने की गुहार किया करते थे या फिर छोटी छोटी बीमारियों जैसे दाद और खुजली की दवा खरीदने की दरख्वास्त. यूँ भी होता था कि हर जुम्मे को शहर के सिनेमा टाकीज़ में नए फिल्म के आने का ऐलान भी ऐसे लाउडस्पीकर पे ही किया जाता था जिसे सायकल रिक्शा वाला जगह जगह खींच कर ले जाया करता था. वो बचपन इक बार फिर अपनी अधेड़ उम्र में आके खड़ा हो गया था मेरे सामने.
थोडा आगे बढ़ा तो देखा बेतरतीब बालों और बेपरवा कपड़ों में लोगों का इक तांता किसी दफ्तर में लगा हुआ है. मैंने पूछा कि ये क्या है गोकि कयास था कि ये क्या होगा. ये कोई कस्बाई दर्जे का अदालत खाना था जहां लोग अपनी शिकायतों और इन्साफ की गुहार किए कतारों में मुन्तजिर थे. छोटे शहरों और कस्बों में यह इक आम बात है, और मैं हैरत और कुछ दुःख के साथ ये सोच रहा था कि इक अदद नाली के पानी, या इक मामूली घर के कचरे का सवाल लोगों को क्यूँ अदालतखाने तक खींच कर ले आता है. ये तहम्मुल की कमी और कस्बाई ज़िंदगी के इक गैरमतलूब पहलू का नज़ारा था जिससे इक बार फिर मैं दरपेश हुआ.
चिंतामणि के बाजार से गुजरने का सफर जारी था, एक के बाद एक दुकानें गुज़र रहीं थीं- रजाई-गद्दे की, मच्छरदानी-पर्दों की, बर्तन भांडों की, रस्सी और बोरों की, वगैरह वगैरह. ये यहाँ के लोगों की बुनियादी ज़िंदगी का कोई आइना हो जैसे गोकि थोड़े और करीब से जाके देखने से ये नुमायाँ हो सकता था कि शहरी आसाइशों के वसीले और तरक्कियात के तआस्सुरात से यहाँ के लोग महरूम नहीं हैं.
शाम के करीब हम कोलार पंहुंचे. दफ्तर के काम से फारिग होने के बाद हम वापिस बैंगलोर को रवाना हुए, मगर इस मर्तबा चेन्नई-बंगलुरु हाईवे के रास्ते. नए ज़माने की कोई शाहराह थी वो सड़क, मगर बाएँ-दाएं मैदानों की खूबसूरती पे कुदरत का फैज़ कुछ कम न था. पथरीले पहाड़ों पे सब्जे न के बराबर थे पे उनका पूरा ऊपरी बदन गोल गोल पत्थरों से यूँ सजा था मानों किसी कारीगर ने बड़ी मेहनत से उनपे नगीने जड़ रक्खे हों.
लेबरनेट, बंगलोर के गेस्टहाउस पहुंचते पहुंचते मोहतरमा-ए-शब का दाखिला हो चुका था. ऐसा लग रहा था कि कमरे के बाहर की खुली छत और गलियारों में आसपास के नारियल के पेड़ों से हमसीना होके हवा नहीं बह रही हो बल्कि कोई शमशादकद परी दबे पाँव मद भरी अदा में टहल रही हो और उसके ढीले पैरहन का रूमानी दामन फर्श से लम्सरेज़ होता हुआ इक मद्धम पुरअसरार आवाज़ पैदा कर रहा हो.
मीठी नींद में थक के बिस्तर पे गिरके सो जाने के लिए ये ख्याल काफी था!
© राज़ नवादवी
बैंगलोर, रात्रिकाल, २४/०७/२०१२
उर्दू लफ़्ज़ों के मानी-
चस्पां- चिपका हुआ; पसेमंज़र- परिदृश्य में; मह्वियत- तल्लीनता; सब्जियत- हरियाली; तहलील हो रहे थे- घुल रहे थे; खुनक हवाएं- ठंढी हवाएं; खालिस- शुद्ध; नौइयत- अवस्था; गोशों से- कानों से; चुनांचे- इसलिए; फहम- बुद्धि; हाफिजे में तफुलियत से वबस्ता यादें- स्मृति में बचपन से जुडी़ यादें; आबाई शहर- पुरखों का शहर; अहलेफरोश- बेचने वाले; जुम्मे को- शुक्रवार; कयास- अनुमान; मुन्तजिर- प्रतीक्षा में; तहम्मुल- सहिष्णुता; गैरमतलूब- अनपेक्षित; दरपेश होना- सामने होना; नुमायाँ- प्रकट; आसाइशों के वसीले और तरक्कियात के तआस्सुरात- आराम के साधन और विकास के लक्षण; महरूम- वंचित; फारिग- निवृत्त; इस मर्तबा- इस बार; कुदरत का फैज़- प्रकृति की कृपा; मोहतरमा-ए-शब का दाखिला हो चुका था- रात की देवी का आगमन हो चुका था; हमसीना होके- सीना से लग के; शमशादकद परी- सर्व नामक पेड़ से कद वाली परी; पैरहन- लिबास, गाउन; दामन- आँचल; फर्श से लम्सरेज़ होता हुआ- फर्श से सटता हुआ; मद्धम पुरअसरार आवाज़- धीमी, रहस्यमय ध्वनि
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