प्रेम के उद्भव और विलय का यह कैसा दंश है......
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समूची सृष्टि में एक ही प्रेम का गीत गुंजायमान है. मेरे और तुम्हारे हृदयों में जो प्रेम धड़क रहा है उसमें भी उसी एक मौलिक प्रेम का स्पनंदन विद्यमान है. सारा अस्तित्व आकर्षणों और विकर्षणों के एक हीगणित से चलायमान है. प्रेम एक ऐसा वर्तुल है जिसका केंद्र कल्पना में ही अस्तित्वमान है. ये वर्तुल जब असीम होके निराकार हो जाता है तो केंद्र की भी सत्ता खो जाती है और प्रेम के सिवा कुछ भी तो नहीं रह जाता है. प्रेम के होने, उसके भोक्ता के होने, उसके परिपूरक के होने और उसकी अंतःक्रियाओं के होने का भी तो ज्ञान निश्शेष हो जाता है.
मुझे ज्ञान नहीं था कि तुम्हारे गाँव की वीथिका, घर, उपत्यका, तुम्हारे नयन, और तुम्हारे हृदय से प्रारम्भ होके मेरे और तुम्हारे प्रेम के समीकरण का तार इतना दीर्घ होगा कि हमाराफिर से एक दूसरे से अपने उन्हीं रूपों में मिलना एक और नई सृष्टि के होने से पहले संभव नहीं हो पाएगा!
प्रेम के उद्भव और विलय का यह कैसा दंश है?
© राज़ नवादवी
पुणे, २६/०४/२०१२
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