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जिंदगी ले के चली, एक ऐसी डगर,
राह के उस पार, चलते हैं हम सफ़र. 

रात और दिन, मील के पत्थर जैसे हैं,
मोड़ बन जाते कभी, हैं चारों पहर.
  
फादना पड़ता है, दीवारें अनवरत,
ढूँढना चाहूँ मै, 'उसको' जब भी अगर.
 
शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें,
बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर.

जिंदगी में लेने आता, एक बार पर-
बैठती हूँ रोज, 'बस्तीवी' सज संवर!

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Comment

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Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 26, 2012 at 8:56pm

भाई वीनस जी, सादर! आप रचना को प्रणाम करें और और मै आपको प्रणाम :)

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 26, 2012 at 8:54pm

आदरनीया सीमा जी, जी जरुर मेहनत करेंगे शिल्प एवं कहन दोनों पर, आपका आशीर्वाद मिलता रहे बस.

Comment by वीनस केसरी on March 23, 2012 at 1:01pm

शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर.

नयापन आज है कल यही पुराना हो जायेगा
नए की तलाश में कवि का मन आकुल होता है  .....

अज्ञेय कहते हैं - जो बिम्ब पुराने हो जाएँ वह उसी तरह घिस जाते हैं जैसे पुराने पीतल के बर्तन काले पड़ जाते हैं

आपकी नवीनता की तड़प आपकी श्रेष्ठता को दर्शाती है
सादर

रचना को प्रणाम है

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 22, 2012 at 4:52pm

माननीय महिमा जी, सादर धन्यवाद.

Comment by MAHIMA SHREE on March 22, 2012 at 11:19am
शख्शियत में नये, बदलता हूँ धीरे से,
नये चेहरे मिले और, नये से राही जिधर...

राकेश जी
नमस्कार....क्या बात है....सही कहा...आपने जिंदगी धीरे -२ हमे अपने धूप छावं में बदल रही ..होती है...
बधाई ..आपको
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 19, 2012 at 10:54am

आदरणीय रवीन्द्र जी एवं शशि जी, सदर नमस्कार. जी वजह फरमाया शाही जी ने, मगर 'worker and workaholic' मे अंतर होना ही चाहिए. मेरा ये मानना है. धन्यवाद.

Comment by Dr. Shashibhushan on March 18, 2012 at 10:16pm

मान्यवर राकेश जी,
सादर !
अंतर्मन के भावनाओं की सुन्दर शब्द-सज्जा !
बहुत बढ़िया !

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:43pm

बहुत अच्छी कविता है,राकेश जी.

द्वार-मंदिर मिले न मिले, पर चाहतें, बांहों में ही भींचे रहती हैं, ता-उमर. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 18, 2012 at 12:06am

भाई आनंद जी एवं भाई त्रिपाठी जी, सादर धन्यवाद.
श्री विन्ध्येश्वरि जी: आप तो 'Gondavi' साहब के जिले से निकले, उन्हे मैं अपना द्रोणाचार्य मानता हूँ.
जहाँ तक इस फोरम से सीखा है, मैने ग़ज़ल लिखने का प्रयत्न किया है, 2122/2122/2212/ की तर्ज पर. अब गुरु जनो से आग्रह है की वे बतावें की कितना सफल रहा हूँ. धन्यवाद.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 17, 2012 at 9:23pm
त्रिपाठी जी रचना तो बहुत जमीं मगर ये किस विधा में रची गयी है समझने में मुझे दिक्कत है।रचना के नाम पर पूरे गोंडा की तरफ से बस्तीवी साहब को जोरदार बधाई।

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