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खामोश इन निगाहों का इश्तिहार जरा देखें।
टूटे हुए दिलों के पुकार जरा देखें॥
जरूरी नहीं जरूरतमंद की जरूरत पुरी हो।
जरूरत से ज्यादा लम्बी कतार जरा देखें॥
घनानन्द यहां मरता है हरवक्त प्यार में।
मगर सुजान का मौसमी प्यार जरा देखें॥
हर सूं यहां कुबेर का दबदबा बना हुआ है।
और दवताओं के पुरअसरार जरा देखें॥
इस दुनिया में जीने से मर जाना भला है।
पटे मौत की खबर से अखबार जरा देखें॥
दोस्त गर जीने की चाहत अभी बची है।
इकबार चलो चांद के उस पार जरा देखें॥

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 18, 2012 at 10:23pm
आभार डॉ. साहब।
Comment by Dr. Shashibhushan on March 18, 2012 at 9:58pm

मान्यवर त्रिपाठी जी,
सादर !
भावपूर्ण रचना ! यथार्थ वर्णन ! सत्य की खोज !
बधाई !

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 17, 2012 at 6:07pm
गुरूदेव प्रणाम! क्या कुछ लगा नहीं?रचना किस विधा के सर्वाधिक निकट है?इसमें कहां परिवर्तन करके किसी विधा वाली रचना का रूप दिया जा सकता है?प्रबोध देने की कृपा करें।
सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 17, 2012 at 5:53pm

सब सही, मगर यह है क्या ? भावों को कुछ दिन ज़ज़्ब कर इन्हें किसी विधा  या अतुकांत प्रवाह ही सही किसी व्यवस्थित साँचे में ढालने का प्रयत्न न करें ?  भाव यों अच्छे लगे.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 17, 2012 at 5:01pm
आदरणीय वाहिद जी आभार!
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 17, 2012 at 4:57pm
आदरणीय कुशवाहा जी आभार!
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 17, 2012 at 12:34pm

सुंदर प्रस्तुति पर बधाई त्रिपाठी जी..

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 17, 2012 at 10:13am

दोस्त गर जीने की चाहत अभी बची है।
इकबार चलो चांद के उस पार जरा देखें॥

bahut khoob. badhai.

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