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दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में

दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,

वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.

ढूंढे नहीं  मिला एक भी रहनुमा यहाँ,

सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.

 

तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,

फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाँव में,

दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,

लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.

 

पूछा क्या रखोगे मुहब्बत के दाँव में?

आ देख नमक लगा रक्खा है घाव में,

तुम हमको कभी, पत्थर मार देते तो,

लहरें बनाते सुन्दर दिल के तलाव में.

 

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,

वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.

पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,

पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.    

 

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Comment by Abhinav Arun on March 14, 2012 at 1:41pm

वाह बहुत ही चुटीले अंदाज़ में हकीकत बयानी की है श्री राकेश जी -

कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,

वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.

पौधे कभी वो छूते नहीं आसमान को,

पलते जो हैं किसी बड़े बरगद की छाँव में.

हार्दिक बधाई इस रचना हेतु !!

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 14, 2012 at 1:02pm

संदीप भाई, महिमा बहन, आपका सम्मान ही रचना कार की संपत्ति है. बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 12:12pm

बहुत ख़ूब राकेश जी.. हर कड़ी एक से बढ़ कर एक है.. आनंद आ गया इस रचना का आस्वादन कर के| बधाईयां...

Comment by MAHIMA SHREE on March 14, 2012 at 11:11am
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.


कोयला बना चमक कर हीरा दबाव में,
वीणा से सप्त सुर निकले तनाव में.
क्या खूब कही है राकेश जी आपने .......शब्द नहीं है ..मेरे पास.. बधाई..

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